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श्रमण, जनवरी-मार्च १९९२ ऋग्वेद में सत् एवं असत् दोनों को जगत्-उत्पत्ति का कारण माना है। ऋग्वेद के दशम मण्डल' में असत् से, जो अव्यक्त है, नाम रूप से जो युक्त नहीं है, अर्थात् विशुद्ध ब्रह्म जिसमें कोई विकार नहीं है, सत् की उत्पत्ति वर्णित है। ऋग्वेद में यह भी उल्लेख मिलता है कि तत्त्व तो एक ही है किन्तु उसी को विद्वज्जन नाना प्रकार से अभिहित करते हैं-'एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति ।'
उपनिषदों में कहीं 'सत्' को तो कहीं 'असत्' को जगत् की उत्पत्ति का मूल कारण माना गया है। छान्दोग्य उपनिषद् में सत् को मूल कारण माना गया है। तैत्तिरीयोपनिषद् में असत् को जगत् की उत्पत्ति का मूल कारण माना गया है। 'उपनिषदों में ही कहीं कहीं पर जैसे कि छान्दोग्य उपनिषद' में सत्-असत् दोनों को जगत् का मूल मानने वाले विचार वर्णित हैं।
गीता में भी तत्त्व के सत्-असत् होने से सम्बन्धित विचार वर्णित हैं।
उपर्युक्त मतों के विपरीत बौद्ध दर्शन जगत् की उत्पत्ति अकारण मानता है।
मूल तत्त्वों की संख्या के विषय में भी पर्याप्त मतभेद है । कहीं पर मूलतत्वों की संख्या एक मानी गयी है तो कहीं पर चतुर्भूतों द्वारा जगत्-सृष्टि मानी गयी है तो कहीं पर मूल तत्वों की संख्या छः मानी गयी है। कुछ विचारक तत्त्वों को नित्य मानते हैं जैसे शाश्वतवादी जो कुछ अनित्य मानते हैं जैसे उछेच्दवादी।
उपयुक्त चर्चा का तात्पर्य यही है कि तत्त्वों की संख्या, प्रकृति, आदि के विषय में दार्शनिक सिद्धान्तों में पर्याप्त मतभेद एवं १. देवानां पूर्वे युगेऽसतः सदजायतः। ऋग्वेद १०७२।४ २. असदेवेदमग्रासीत्। तत् सदासीत् । तत्समभवत् ।
छान्दोग्योपनिषद् ३।९।२ ३. असद्वा इदमग्रासीत् ततो वै सदजायत् । तैत्तिरीयोपनिषद् २१७ ४. सदेवंसोम्येमग्रासीन् एकमेवाद्वितीयत ।
तदक्षत् बहुस्यां प्रजायेयेति ।। -छांदोग्योपनिषद् ७।२।३ ५. गीता, १३.१२
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