Book Title: Sramana 1992 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 93
________________ स्याद्वाद एवं शून्यवाद की समन्वयात्मक दृष्टि --डॉ० (कु०) रत्ना श्रीवास्तवा* लगभग सभी दार्शनिक पद्धतियों ने जगत एवं तत्त्व के विषय में अपनी-अपनी विशिष्ट मान्यताएँ स्थापित की हैं । इस मान्यता-स्थापन में मात्र अपने सिद्धांत को सर्वोत्कृष्ट सिद्ध करने तक ही वे सीमित नहीं रहे वरन् पूर्ववर्ती एवं समसामयिक मान्यताओं का खण्डन भी करते रहे। दार्शनिकों की इस प्रवृत्ति के कारण इतने मत एवं दार्शनिक विचार अस्तित्व में आये कि यह समस्या हो गई कि कौन से विचार यथार्थ हैं और कौन से अयथार्थ । इस खण्डन एवं मण्डन के परिवेश में भारत में ऐसे दो दार्शनिक सिद्धान्तों का प्रादुर्भाव हुआ जिन्होंने पूर्ववर्ती विचारधाराओं की तत्त्वविषयक मान्यताओं में समन्वय का प्रयास किया। ये दो विचारधाराएँ हैंजैन दर्शन का स्याद्वाद एवं बौद्ध दर्शन का शून्यवाद । उक्त दोनों विचार धाराओं ने किस प्रकार समन्वय का प्रयास किया यही बतलाना इस लेख का मन्तव्य है। इस क्रम में हम सर्वप्रथम विभिन्न भारतीय दार्शनिकों की तत्त्व विषयक मान्यताओं पर विचार करेंगे इसमें दो मत नहीं कि भारतीय परिवेश अति प्राचीन काल से ही स्वतन्त्र चिन्तन के अनुकूल रहा है। प्रत्येक विचारक को अपने सिद्धान्तों एवं मूल्यों के अनुकूल चिन्तन करने एवं जीवित रहने की स्वतन्त्रता रही है। यही वैचारिक स्वतन्त्रता समस्त तत्त्व विषयक मत वैभिन्न्य एवं विवादों की जड़ थी। इन विचारकों के सम्मुख प्रमुख समस्या जगत की उत्पत्ति, विनाश, उत्पत्ति कारणता एवं तत्त्व का स्वरूप था। किञ्चित् विचारकों ने जगत्-उत्पत्ति को 'सत्'; तो कुछ ने असत् की कोटि में रखा एवं कुछ ने 'सत्' एवं "असत्" दोनों को माना। वेद, उपनिषद् एवं गीता में तद्विषयक स्पष्ट उल्लेख मिलते हैं। * डिप्लोमा छात्रा, पा० शोधपीठ, वाराणसी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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