Book Title: Sramana 1992 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 84
________________ ८२ श्रमण, जनवरी-मार्च १९२ और इसी विकास की पराकाष्ठा में अहिंसा मानव जीवन का अंग बन सकी है। __ अहिंसा मूलतः निषेधात्मक शब्द है । इसे स्पष्ट करना भी आवश्यक है। मानव सबसे पहले हिंसा से परिचित हुआ, हिंसा उसके जीवन की पद्धति थी। फिर उसके भीतर विवेक और ज्ञान स्फूरित हुआ और वह जान पाया कि प्राणी के स्तर से ऊपर उठा जा सकता है। उसने जीवन के ऊर्ध्वारोहण का पहला पाठ सीखा। उसने सीखा कि हिंसा जीवन की पद्धति नहीं है, हिंसा अनिवार्य नहीं है। सृजन एवं विकास हिंसा से सम्भव नहीं हैं। यह बोध उसे प्राणी से मानव में रूपान्तरित करता गया। सहिष्णुता, समभाव, सहयोग, त्याग, आदि सभी तत्त्व जो मानव को समाज का रूप देते हैं उन सब का मूल आधार अहिसा है । मानव के लिए अहिंसा को अंगीकार करना स्वाभाविक था। जैन दर्शन के परम मूल्यों में अहिंसा श्रेष्ठ है। यह मानवीय कर्मों के मुल्यांकन का तत्त्व है और इसीलिये यह 'मानवता' का आधारभूत तत्त्व है। लेकिन अभी भी मानव के भीतर का पशु पूर्णतया रूपान्तरित नहीं हो पाया है। केवल हिंसा का स्वरूप बदला है तथा हिंसा के लिए नित नए साधन विकसित किए गये हैं। प्रकृति के दोहन से लेकर स्वयं मनुष्य के शोषण की विधियों और साधनों का विकास यह दर्शाता है कि अहिंसा के तत्त्व को पूर्णतः अंगीकार करने के लिए अथक प्रयास आवश्यक है। वैज्ञानिक प्रगति एवं संसाधनों के विकास ने मानव को सर्वभक्षी बना दिया है। मानव ही एक मात्र ऐसा प्राणी है जो मानव की ही व्यापक हिंसा करने की तैयारी कर रहा है और सम्पूर्ण मानवता उसके दुष्परिणाम भोग रही है । वैज्ञानिकता के आवरण में स्वयं मानव ने मानवीय मूल्यों को गौण कर दिया है। हिंसा के रूप दिन-ब-दिन व्यापक एवं सूक्ष्म होते जा रहे हैं। प्राणी हिंसा की जगह कर्म-हिंसा के नए रूप विकसित हुए हैं। मानव ने ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न की है जिनके परिणाम हिंसक होते जा रहे हैं। आजकापर्यावरण, समाज तथा राजनीति इसके उदाहरण हैं। प्रकृति के निर्लज्ज दोहन और प्राणीमात्र के शोषण ने न केवल मानव का जीवन त्रस्त कर दिया है, वरन् मानव उत्पादों और कार्यों से दूसरे जीवों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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