Book Title: Sramana 1992 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 88
________________ ८६ श्रमण, जनवरी-मार्च १९९२ पर्याप्त भोजन नही था तब हमें सयंम को अपनाना चाहिये था एवं जनसंख्या को सीमित रखना चाहिये था। साथ ही प्रकृति के दोहन को व्यावसायिक नहीं बनाना चाहिए था । लेकिन मनुष्य की अदूरदर्शिता के कारण ही बाज भोजन तथा वनस्पति की कमी अनुभव की जा रही है । मानव में प्रदूषण फैलाने की तथा हिंसा करने की व्यापक क्षमता है । उसने ऐसे साधन विकसित किये हैं जिससे अधिकतम हिंसा संभव होती है तथा अधिकतम पर्यावरण प्रभावित होता है । विज्ञान के अनुचित प्रयोग तथा प्रकृति पर स्वामित्व स्थापित करने के लिए वह मर्यादाओं को लांघता जा रहा है । यह प्राणी मात्र के प्रति हिंसा है । हिंसा किसी भी स्तर पर क्यों न हो, हिंसा ही है । यदि हम किन्हीं बाह्य कारणों से हिंसा करते हैं तब हमें ऐसे उपाय खोजने होंगे कि हमें इस प्रकार की हिंसा से मुक्ति मिले। जैन दर्शन में अहिंसा को परिभाषित करते हुए कहा गया है ' अहिंसा निउणं दिट्ठा सव्वभूएसु संजमो' अर्थात् प्राणी मात्र के प्रति जो संयम है वही पूर्ण अहिंसा है । जहाँ भी जीवन है मानव संयम करे । एक सामान्य व्यक्ति के लिए अहिंसा पूर्णतया वैज्ञानिक, तर्कसंगत एवं विवेकपूर्ण है । अहिंसा का सिद्धान्त मानवोचित कर्म की आधारशिला है । हिंसा न केवळ मानव को पतित करती है बल्कि उसके परिणाम भी अन्ततोगत्वा मानव को ही भोगने पड़ते हैं । अहिंसा के द्वारा ही व्यक्ति का रूपान्तरण सम्भव होता है । हिंसा को जीवन का साधन बनाना अनुचित है । मानव को हिंसा से दूर ले जाना एवं उसे अहिंसा के महत्त्व को समझाना ज्यादा कठिन नहीं है आवश्यकता है केवल सतर्क मानवीय प्रयासों की । विज्ञान और संसाधनों की सहायता से इसकी अनिवार्यता, उपयोगिता एवं प्रामाणिकता को जन-जन तक पहुँचाया जा सकता है । जैन दर्शन हिंसा को दो प्रकारों में विभक्त करता है -- भाव हिंसा और द्रव्य हिंसा | व्यावहारिक दृष्टि से प्राणवध हिंसा है और प्राणवध न करना अहिंसा है । परन्तु यह केवल द्रव्य हिंसा पर लागू होता है, वह भी एक सीमा तक । किसी भी प्रकार का कष्ट जिसका कारण मानव कर्म है वह हिंसा की श्रेणी में आता है । इस प्रकार राग, द्वेष, क्रोध, अपशब्द आदि भाव हिंसा में आते हैं। मनुष्य जो क्रियाएं सम्पन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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