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श्रमण, जनवरी-मार्च, १९९२ किया है । शतपथ ब्राह्मण में ब्रह्मा अर्थ में इसका उल्लेख किया है ।" अमरकोश में ब्रह्मा तथा मनुस्मृति में विष्णु अर्थ में प्रयुक्त है । "
उपरोक्त सभी संदर्भों में परमेष्ठी पद देव अर्थ को लिए हुए है । पितामह ब्रह्मा, प्रजापति, विष्णु, महादेव, शालग्राम विशेष आदि अर्थों में परमेष्ठी शब्द का प्रयोग मिलता है । देव अर्थ के साथ गुरु अर्थ में भी परमेष्ठी शब्द का निर्देश प्राप्त होता है । 'बृहन्नीलतन्त्र' में परमेष्ठी शब्द गुरु अर्थ को लिए हुए है । महाभारत में अजमीड़पुत्र के लिए भी परमेष्ठी पद का प्रयोग किया है। मार्कण्डेय पुराण में तो जो परमस्थान में स्थित है, उसके लिए परमेष्ठी का उल्लेख है । ताण्ड्य ब्राह्मण में भी प्रजापति का उल्लेख मिलता है । "
सभी संदर्भों से यही निष्कर्ष निकलता है कि सभी मजहबों में 'परमेष्ठी' पद को परम - उच्चावस्था में संप्राप्त आत्म तत्त्व के लिए स्वीकार किया है । देवतत्त्व तथा गुरुतत्त्व दोनों के लिए परमेष्ठी पद सभी ने एकमत से स्वीकार किया है । जैन तथा जैनेतर दोनों में इसे स्थान दिया गया है ।
अब प्रश्न यह हमारे समक्ष उभरता है कि जैन धर्म में परमेष्ठी पद को जितनी ख्याति प्राप्त है, उतनी अन्य दर्शनों में नहीं । यहाँ तक कि जैनधर्म में पंच परमेष्ठी पद ही आराधना - साधना का केन्द्र बिंदु है । परन्तु प्रचलित आगमों में इसका उल्लेख नहीं है । तब इसका प्रचलित रूप कैसे प्रवेश कर गया । वेदों में जब कि अनेकशः इसका प्रयोग होने पर भी इस पद का प्रचलन दृष्टिगत नहीं होता । प्राचीनता की अपेक्षा से वेदों को जैन आगमों से अधिक विद्वद्गणों ने मान्य किया है । वेद, उपनिषद्, ब्राह्मण, पुराण आदि में भी इसका प्रयोग दृष्टिगत होता है । तब क्या यह मान्य किया जाय कि वेदों से यह पद आगमों में प्रयुक्त हुआ ? अथवा वेदों का प्रभाव आगमों पर पड़ा ?
१. शतपथ ब्राह्मण ११-१-६
२. अमरकोश १-१-१६
३. मनुस्मृति १-८० ४. बृहन्नीलतन्त्र २ पटल
५. महाभारत १-९४-३१ ६. मारकण्डेय पुराण ७६-२ ७. ताण्ड्य ब्राह्मण १९-१४-३
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