Book Title: Sramana 1992 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 75
________________ ऋषिभाषित का सामाजिक दर्शन ७३ सारिपुत्त कहते हैं कि 'अर्थादायी' अर्थात् धनलोलुप व्यक्ति को मन को आकर्षित करने वाली मीठी भाषा बोलने वाला समझो। इसका तात्पर्य यह है कि अर्थलोलुप व्यक्ति बाहर स मधुर व्यवहार करता है किन्तु वह अन्तर में अहितकारक ही होता है। उसकी अर्थ ग्रहण की इस विसंगतिपूर्ण सन्तति परम्परा को देखकर धनलोलुप व्यक्ति से दूर ही रहना चाहिए। इस प्रकार ऋषिभाषित में अर्थ और काम दोनों ही पुरुषार्थों के प्रति उपेक्षाभाव ही प्रदर्शित किया गया है, किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि इसका मूलभूत कारण भी ग्रन्थकार की संन्यासमार्गी जीवन-दृष्टि है। अर्थ और काम दोनों ही संन्यासी के लिए बाधक माने गए हैं, अतः यह स्वाभाविक ही है कि ग्रन्थकार इन दोनों पुरुषार्थों के प्रति उपेक्षाभाव प्रदर्शित करें और धर्म और मोक्ष को ही परम पुरुषार्थ मानें। व्यक्ति के सुधार से समाज सुधार सामान्यतया ऋषिभाषित निवृत्तिमार्गी या संन्यासमार्गी परम्परा का ग्रन्थ है, अतः उसमें सांस्कृतिक और सामाजिक चिन्तन के जो सन्दर्भ उपलब्ध हैं, वे मूलतः वैराग्यवादी प्रकृति के हैं । वे मनुष्य को सांसारिक जीवन से विमुख करने के लिए ही हैं। अतः उसमें समाजजीवन का यथार्थवादी पक्ष अनुपलब्ध है, मात्र कुछ आदर्शवादी संकेत-सूत्र प्राप्त हैं। उसमें त्याग और वैराग्य के जो उपदेश उपलब्ध हैं, उनके आधार पर हम यह कल्पना कर सकते हैं कि उस युग के सामाजिक जीवन में आज की ही भाँति व्यभिचार, युद्ध, संघर्ष, चोरी, व्यावसायिक-अप्रमाणिकता आदि अनेक प्रकार के दोष रहे होंगे जिनके निराकरण के लिये एवं स्वस्थ सामाजिक जीवन के निर्माण के प्रयत्न किये जा रहे थे। जब ऋषिभाषितकार यह कहता है कि हिंसा नहीं करना चाहिये, झूठ नहीं बोलना चाहिये, चोरी नहीं करना चाहिये अथवा ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये, तो इससे हम यह फलित निकाल सकते हैं कि उस युग के सामाजिक जीवन में हिंसा, असत्य, चौर्यकर्म, अब्रह्मचर्य और परिग्रह के संचय की प्रवृत्ति अवश्य उपस्थित रही। ४. इसिभासियाइ ३८-२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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