Book Title: Sramana 1992 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 76
________________ ७४ श्रमण, जनवरी-मार्च १९९२ होगी, क्योंकि तभी तो इनसे विरत होने का निर्देश दिया गया। ऋषिभाषित में अनेक स्थलों पर हिंसा, अप्रामाणिकता, चौर्यकर्म, अब्रह्मचर्य और परिग्रह से विरत होने के सन्दर्भ हैं। किन्तु हमें यह स्मरण रखना होगा कि ये सभी मात्र वैयक्तिक जीवन की नहीं, अपितु सामाजिक जीवन की भी बुराइयाँ हैं। इनसे न केवल व्यक्ति का चारित्रिक पतन होता है, अपितु सामाजिक शान्ति एवं सामाजिक व्यवस्था भी भंग होती है। वस्तुतः ये सामाजिक बुराइयां प्रत्येक युग में रही हैं। अतः ऋषिभाषित के ऋषियों ने भी अपने युग की इन सामाजिक बुराइयों के निराकरण का प्रयत्न अपने उपदेशों के माध्यम से किया और वे इन बुराइयों से मुक्त स्वस्थ-समाज की संरचना के लिए प्रयत्नशील भी रहे होंगे। ऋषिभाषित के अध्ययन से एक बात स्पष्ट है वह यह कि ऋषिभाषित के ऋषि समाज सुधार की बात न करके व्यक्ति के सुधार की बात करते हैं। दूसरे शब्दों में, वे समाजवादी न होकर व्यक्तिवादी हैं। उनकी मान्यता यही रही है कि जबतक व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास नहीं होता है, तब तक समाज को इन बुराइयों से मुक्त नहीं किया जा सकता। अतः वे व्यक्ति-सुधार के आन्दोलन के समर्थक माने जा सकते हैं। उनका सामाजिक दर्शन और चिन्तन इसी तथ्य पर आधारित रहा होगा कि व्यक्ति के सुधार से ही समाज का सुधार सम्भव है। सामाजिक और वैयक्तिक जीवन का द्वैत वर्तमान युग की सबसे मुख्य बुराई यह है कि व्यक्ति के जीवत में दोहरापन है और वह अपने इस दोहरेपन के कारण सामाजिक जीवन में भी वह दोहरे मानदण्डों का प्रयोग करता है । उसमें अपने दोषों को छिपाने और दूसरे के दोषों को प्रकट करने की प्रवृत्ति पायी जाती है । ऋषिभाषित के 'अंगिरस' नामक ऋषि इस सम्बन्ध में विस्तृत विवरण प्रस्तुत करते हैं । ऋषिभाषित के चतुर्थ अंगिरस अध्याय से यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि उस युग में भी मनुष्य दोहरा जीवन जीते थे और उनके जीवन में एकरूपता नहीं थी। जीवन का यह दोहरापन सामाजिक क्षेत्र में सबसे प्रमुख बुराई कही जा सकती है, क्योंकि इसके कारण एक ओर पारस्परिक व्यवहार में दोहरे मानदण्ड खड़े होते हैं, वही कथन और व्यवहार में एकरूपता न होने के कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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