Book Title: Sramana 1992 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 67
________________ श्रमण एवं ब्राह्मण परम्परा में 'परमेष्ठी' पद ६५ वाष्कलनमन्त्रोपनिषद् में सर्वत्र आत्म-स्थिति का कथन करते हुए. आत्मा की व्यापकता का स्वरूप निर्देश के संदर्भ में परमेष्ठि कह कर भी संबोधित किया है । यहाँ द्रष्टव्य है कि नमस्कार मंत्र में पंच परमेष्ठि पद है जो कि देव और गुरु-तत्त्व में समाहित है । उपनिषदों में देव तत्त्व के रूप में ब्रह्मा-विष्णु और प्रजापति को तो स्थान मिला ही है साथ ही आत्मव्यापकता की स्थिति में भी परमेष्ठि संज्ञा दी गई है । नमस्कार मंत्र में - अरिहन्त, सिद्ध आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पंच पद हैं । आत्म-परमात्म दोनों पदों में आत्म के उत्कर्ष को परमस्थिति' की प्राप्ति के साथ कथन किया है । आत्मा की व्यापकता तो समान रूप से लक्षित होती ही है । इस प्रकार हमें विदित होता है कि परमेष्ठि पद से उच्चतम स्थान- निवासी की संज्ञा जैन तथा उपनिषदों में समान रूप में प्राप्त है । यद्यपि देवत्व के स्वरूप में भिन्नता है तथापि देव स्वरूप से परमेष्ठि-पद का कथन तो किया ही गया है । पुराण आदि साहित्य में परमेष्ठी- पौराणिक साहित्य में विष्णु अर्थ में ', महादेव अर्थ में' 'महाभारत' में उल्लेख किया गया है । 'ब्रह्मपुराण' में शालग्राम विशेष अर्थ में परमेष्ठी पद प्रयुक्त है । 'पुराण संग्रह' में भी इसी के समान प्रयोग किया है । 'वैश्वानर संहिता में भी इसकी पुष्टि की गई है । इसके अतिरिक्त 'भागवत पुराण' में ब्रह्मा अर्थ में एवं विष्णु अर्थ में प्रयोग १. महाभारत १३-१४९-५८ २. वही, ३-३७-५८ ३. ब्रह्मपुराण ४. पुराणसंग्रह ५. वैश्वानरसंहिता भागवत पुराण २-१-३०, २-२२, ३-६, २-३-६ ७. वही, २-१-३०, २-२-२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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