Book Title: Sramana 1992 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 65
________________ श्रमण एवं ब्राह्मण परम्परा में 'परमेष्ठी' पद उपनिषद् में प्रयुक्त परमेष्ठि पद - इस संदर्भ में हम यहाँ उपनिषदों की चर्चा करेंगे कि उपनिषद् में इसका उल्लेख कहाँ-कहाँ किया है तथा किस अर्थ-संकुल में इसे निबद्ध किया है। वैदिक साहित्य में उपनिषदों को वेदान्त कहा जाता है। अध्यात्म की पराकाष्ठा की तुला पर इसे तोला गया है। वस्तुतः भारतीय तत्त्वज्ञान और धर्म सिद्धातों के मूल स्रोत का गौरव इन्हीं उपनिषदों को प्राप्त है । यद्यपि उपनिषदों की संख्या बहुत है, तथापि यहाँ पर अपेक्षित उपनिषदों मात्र का कथन किया है। जहाँ-जहाँ पर 'परमेष्ठि' पद का निर्देश किया है, उस पर हम दृष्टिपात करेंगे। प्राचीनता की दृष्टि से बृहदारण्यकोपनिषद् विशाल एवं प्राचीन है। इसमें 'परमेष्ठि' पद का निर्देश दो स्थलों पर एक समान किया है, “परमेष्ठिनः परमेष्ठी ब्रह्मणो ब्रह्म स्वयंभु ब्रह्मणे नमः"१ यहाँ ब्रह्म को परमेष्ठी पद से अलंकृत करके नमस्कार किया है। नारद परिव्राजकोपनिषद् में नारद शंका समाधान हेतु पितामहब्रह्मा के पास जाते हैं। पितामह ब्रह्मा समाधान करते हुए परिव्राज्य स्वरूपक्रम को नारद से कहते हैं, ऐसा उल्लेख किया गया है। यहां इस उपनिषद् में ब्रह्मा को परमेष्ठी-पद पर अध्यारूढ़ किया है। १. अथर्व० पैपलाद :-- १७.२९.१७, ३.३१:८; ४४२; १०.१४.९; १२.७.१४, १७२६२०; १८१६ ७-९; १.६३.२; १६.१३२:८; ५.५७; १२.२.९; १२.७.१४; १६.६१६; १६.१५३.७; १२.२.९; १२.७.१४; १६.६१.६; १६.१५३७; १७.८.८; १७२८.४; ४'३०.८; १७.२१.५, ५.१४.४; १७.११३ १.५३.१-२; ३.२५.१३; ४.८.१३; ४.२७.२; ९.२३.१७; १०.१०.१ १०.१६१०; १२७°१४; १३५.११; १३.१२.३; १६२७.१०;१६ ४०.३ १६.१३९.१; १७.२९.१७; १७.४०.५; १८ १५ ६; २०४१.८. १. बृहदारण्यक उ० ४-६-३, २-६-३ २. नारद परि. उ. २-८-१ (अ) नारदेन प्राथित परमेष्ठी सर्वतः सर्वानवलोक्य । (ब) विधिवद् ब्रह्म निष्ठा परं परमेष्ठिनं नत्वा स्तुत्वा यथोचितं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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