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श्रमण,
जनवरी-मार्च, १९९२
कैवल्योपनिषद् में भी ब्रह्मा का परमेष्ठि अर्थ परक लेते हुए कथन किया है कि, 'अश्वलायन ऋषि भगवान् परमेष्ठि ब्रह्मा के पास आकर कहने लगे " ।
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जहाँ इन उपनिषदों में परमेष्ठि संज्ञा से ब्रह्मा अर्थ लिया है, वहाँ अन्य स्थल पर विष्णु अर्थघटन भी किया है । महोपनिषद् में इस विष्णु अर्थ का उल्लेख किया गया है ।
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ब्रह्मा-विष्णु के साथ-साथ प्रजापति को भी परमेष्ठि-संज्ञा से अभिहित किया है । अव्यक्तोपनिषद् तथा जैमिनीय उपनिषद् में परमेष्ठि- प्रजापति को कहा गया है ।
ब्रह्मा, विष्णु तथा प्रजापति इन तीनों को परमेष्ठि पद में घटित करने का हेतु यही हो सकता है कि ये देव तत्त्व में अधिष्ठित हैं । देव-तत्व में प्रतिष्ठित होने से इनकी परम पद में स्थिति होनी भी आवश्यक है । जो परम पद में स्थित है, परमात्म स्वरूप है स्वाभाविक है कि परम - उच्चावस्था को प्राप्त, परम-पद में स्थित होगा ही ।
ब्रह्मा, विष्णु, प्रजापति इन तीनों को ही परमेष्ठि-पद से सुशोभित नहीं किया वरन् व्यापक आत्म स्वरूप को भी परमेष्ठि-पद सिंहासन पर आरूढ़ किया है । परम आत्म स्थिति का कथन बाष्कलमन्त्रोपनिषद् में किया है।
" अहमस्मि जरिता सर्वतोमुखः पर्यारणः परमेष्ठी नृचक्षाः । अहं विष्वऽहमस्मि प्रसत्वानहमेकोऽस्मि यदि दं नु किं च । *
१. ॐ अथाश्वलायनो भगवन्तं परमेष्ठिनमुपसमेत्योवाच ।
कैवल्योपनिषद् - १-१
२. परमेष्ठ्यपि निष्ठावान्हीयते हरिरप्यजः ।
भावोऽप्यभावमायाति जीर्यन्ते वै दिगीश्वराः । म० उ० ३-५१
३. (क) अव्यक्तोपनिषद् - १
ततः परमेष्ठी व्यजायत ।
(ख) जैमिनीय उपनिषद् - ३-७-३-२, ३-३-३-३ तदेतद्ब्रह्म प्रजापतयेऽब्रवीत् प्रजापतिः परमेष्ठिने प्राजापत्याय परमेष्ठी प्राजापत्यो देवाय
४. बाष्कल मन्त्रोपनिषद् - २५
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