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चन्द्र कवेध्यक
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२. प्राचार्य गुण
विनय गुण के पश्चात् आचार्य गुण की चर्चा है। पृथ्वी के समान सहनशील, पर्वत की तरह अकम्पित, धर्म में स्थित, चन्द्रमा की तरह सौम्यकांति वाले, समुद्र के समान गंभीर तथा देश-काल के ज्ञाता आचार्यों की सर्वत्र प्रशंसा होती है। ___संख्या में बराबर होते हुए भी इस ग्रन्थ में बताये गये आचार्य के छत्तीस गुण भगवती आराधना,' मूलाचार, प्रवचनसारोद्धार आदि ग्रन्थों में प्राप्त गुणों से भिन्न हैं। __ आचार्यों की महानता के सन्दर्भ में कहा गया है कि इनकी भक्ति से जीव इस लोक में कीति और यश को प्राप्त करता है और परलोक में विशुद्ध देवयोनि को प्राप्त करता है। आचार्यों के वन्दन की महत्ता का जैसा उल्लेख इस ग्रन्थ में मिलता है वैसा शायद ही किसी अन्य ग्रन्थ में मिलता हो। ग्रन्थ में कहा है-इस लोक के जीव तो क्या देवलोक में स्थित देवता भी अपने आसन एवं शय्या आदि का त्यागकर अप्सरा समूह के साथ आचार्यों की वन्दना करने के लिए जाते हैं। ३. शिष्य गुण
शिष्य गुण के सन्दर्भ में कहा गया है कि नाना प्रकार से परिषहों को सहन करने वाले, लाभ-हानि में समभाव से रहने वाले, अल्प इच्छा में सन्तुष्ट रहने वाले, ऋद्धि के अभिमान से रहित, दस प्रकार की सेवा-सुश्रूषा में सहज, आचार्य की प्रशंसा करने वाले तथा संघ की सेवा करने वाले एवं ऐसे ही विविध गुणों से सम्पन्न शिष्य की कुशल. जन प्रशंसा करते हैं।
१. भगवती आराधना (शिवार्य)-सम्पा० पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, प्राक०
जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापूर, प्रथम संस्करण ई० सन् १९१८,
गाथा ४१९-४२७ । २. मूलाचार (वट्ठकेर)- सम्पा• पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, प्रका० भारतीय
शानपीठ, दिल्ली, प्रथम संस्करण १९८४, गाथा १५८-१५९ । ३. प्रवचनसारोद्धार-प्रका० देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, ई० मन्
१९२२, गाथा ५४१-५४९।
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