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श्रमण, जनवरी-मार्च, १९९२ शिष्य किसके होते हैं ? इसके उत्तर में कहा गया है कि समस्त अहंकारों को नष्टकर जो शिष्य शिक्षित होता है, उसके बहुत से शिष्य होते हैं, किन्तु कुशिष्य के कोई भी शिष्य नहीं होते। शिक्षा किसे देनी चाहिए, इस सम्बन्ध में कहा गया है कि किसी शिष्य में सैकड़ों दूसरे गुण भले ही क्यों न हों, किन्तु यदि उसमें विनय गुण नहीं है तो ऐसे पुत्र को भी वाचना न दी जाए, फिर गुण-विहीन शिष्य को तो क्या ? अर्थात् उसे तो वाचना दी ही नहीं जा सकती। ४. विनय-निग्रह गुण-- ___चन्द्रकवेध्यक में विनय गुण और विनय-निग्रह गुण ये दो स्वतन्त्र द्वार हैं, किन्तु विषयवस्तु पर दृष्टिपात से यह स्पष्ट नहीं होता कि विनय गुण और विनय-निग्रह गुण में क्या अन्तर है ? दोनों ही द्वारों में प्रदत्त विवरण का तात्पर्य विनम्रता या आज्ञापालन से ही है। वैसे विनय शब्द विनम्रता के साथ-साथ आचार-नियमों का भी सूचक है। विनय-निग्रह द्वार में जो गाथाएँ हैं, उनका तात्पर्य भी आचार-नियम से ही प्रतिफलित होता है। अतः कहा जा सकता है विनय-निग्रह गुण से लेखक का तात्पर्य आगमोक्त आचार-नियमों के परिपालन से ही रहा होगा।
विनय-निग्रह गुण नामक इस परिच्छेद में विनय को मोक्ष का द्वार कहा गया है और सदैव विनय का पालन करने की प्रेरणा दी गई है। सभी कर्मभूमियों में अनन्त ज्ञानी जिनेन्द्र देवों द्वारा भी सर्वप्रथम विनय गुण को प्रतिपादित किया गया है तथा इसे मोक्ष मार्ग में ले जाने वाला शाश्वत गुण कहा गया है। मनुष्यों के सम्पूर्ण सदाचार का सारतत्त्व भी विनय में ही प्रतिष्ठित होना बतलाया है। आगे यह भी कहा है कि विनय रहित तो निर्ग्रन्थ साधु भी प्रशंसित नहीं होते। ५. ज्ञान गुण____ 'ज्ञान गुण' नामक पाँचवें द्वार में ज्ञान गुण के विषय में कहा गया है कि वे पुरुष धन्य हैं, जो जिनेन्द्र भगवान् द्वारा उपदिष्ट अति विस्तृत ज्ञान को समग्रतया नहीं जानते हुए भी चारित्र सम्पन्न हैं । ज्ञात दोषों का परित्याग और गुणों का परिपालन-ये ही धर्म के साधन कहे गये हैं।
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