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श्रमण एवं ब्राह्मण परम्परा में 'परमेष्ठी' पद
आकर पुरुष के हाथ में मणि और कवच जैसा बांधा'' । यहाँ परमेष्ठी से तात्पर्य किसी देवता विशेष से है क्योंकि इन्द्र, विष्णु, सविता, रुद्र, अग्नि, प्रजापति, परमेष्ठी, विराट, वैश्वानर आदि देवताओं के साथ परमेष्ठी को भी देवता कहा गया है।
यहाँ कहीं-कहीं प्रजापति मात्र को परमेष्ठी कहा गया है तो कहीं-कहीं पर परमेष्ठी व प्रजापति दोनों का स्वतन्त्र रूप से उल्लेख किया गया है। नवम कांड में गाय के स्वरूप वर्णन में प्रजापतिपरमेष्ठी स्वतन्त्र देवता कहे गये हैं।
दशम कांड में परमेष्ठी को परमात्मस्वरूप मान्य किया है। इस सन्दर्भ में परमात्म स्वरूप परमेष्ठी कैसे प्राप्त किया जाय ? इसकी चर्चा करते हुए कहा है-“यह पुरुष श्रोतिय गुरु को, परमेष्ठी परम गुरु को किसकी प्रेरणा से प्राप्त करता है ? इस प्रश्न का समाधान करते हैं कि ब्रह्म मन्त्र से श्रोतिय गुरु ज्ञान को और ब्रह्म से परमेष्ठी को प्राप्त करता है। यहाँ ब्रह्म से तात्पर्य है ज्ञान अर्थात् ज्ञान से ही परमात्मा परमेष्ठी का ज्ञान होता है। सातवलेकराचार्य ने परमेष्ठी शब्द की व्याख्या गहन एवं सुन्दर रीति से की है, "परमेष्ठी" शब्द का अर्थ है 'परमस्थान में रहने वाला आत्मा' । परे से परे जो स्थान है, उसमें जो रहता है, वह परमेष्ठी परमात्मा है । (१) स्थूल (२) सूक्ष्म (३) कारण (४) महाकारण, इनसे वह परे है, इसलिए उसको परमेष्ठी किंवा "पर-तमे-ष्ठी" परमात्मा कहते हैं। इसका पता ज्ञान से ही चलता है। सबसे पहले अपने ज्ञान से सद्गुरु को प्राप्त करता है, तत्पश्चात् उस सद्गुरु से दिव्य ज्ञान प्राप्त करके परमेष्ठी परमात्मा को जानना १. अस्मै मणिं वर्म बध्नन्तु देवा इन्द्रो विष्णु सविता रुद्रो अग्निः ।
प्रजापति परमेष्ठी विराङ वैश्वानर ऋषयश्च सर्व । अथर्व० ८-५-१० २. (क) यस्त्वा शाले निमिमाय संजभार वनस्पतीन् ।
प्रजायै चक्रे त्वा शाले परमेष्ठी प्रजापतिः ।। अथर्व० ९-३-११ (ख) यथा यशः प्रजापती यथास्मिन् परमेष्ठिनि ।
अथर्व० १०-३-२४, ११-५-७ ३. प्रजापतिश्च परमेष्ठी च शृङ्ग इन्द्रः शिरो अग्निर्ललाटं यमः कृकाटम् ।
अथर्व० ९-१२-१ ४. केन श्रोत्रियमाप्नोति, केनेमं परमेष्ठिनम् । १०-२-२०
ब्रह्म श्रोत्रियमाप्नोति ब्रह्ममं परमेष्ठिनम् । अथर्व० १०-२-२१
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