Book Title: Sramana 1992 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 62
________________ श्रमण, जनवरी-मार्च १९९२ होता है। परमात्मा-स्वरूप में यहाँ परमेष्ठी स्वीकार किया गया है, यह प्रतीति होती है। इसी तथ्य को और अधिक स्पष्ट करते हैं कि जो पुरुष ब्रह्म को जानता है, वह परमेष्ठी को जानता है जो परमेष्ठी को जानता है वह प्रजापति को जानता है। यहाँ परमेष्ठी से तात्पर्य ब्रह्म से परे परमात्मा से लिया है। ब्रह्म से उच्चावस्था परमेष्ठी परमात्मा की है। इसी सन्दर्भ में सातवलेकराचार्य का कथन है कि 'जो पुरुष में मनुष्य के अन्दर ब्रह्म को जानते हैं, वे ही परमेष्ठी परमात्मा को जानते हैं । यहाँ व्यष्टि, समष्टि और परमेष्ठी का भेद देखना चाहिए। व्यष्टि एक व्यक्ति है, समष्टि व्यक्ति-समूह का नाम है और परमेष्ठी स्थिर-चर विश्व सम्पूर्ण का नाम है। प्रस्तुत काण्ड में मनुष्य विश्वव्यापक परमेष्ठी को किस प्रकार जान सकता है इसका उल्लेख करते हुए ब्रह्म साक्षात्कार की साधना का कथन किया गया है। ___ ग्यारहवें काण्ड में भी परमेष्ठी से अभिप्राय परमेश्वर परमात्मा का ही है। बारहवें काण्ड में प्रजापति को परमेष्ठी कहकर सातवलेकराचार्य परमेष्ठी की व्युत्पत्ति करते हैं -'परमे-स्थि' 'परम उच्च स्थान में स्थित' । परमेष्ठी पद की प्राप्ति के लिए दान देना, सत्य और तप आदि धर्म-कर्म जो किये जाते हैं, मुख्यतः परमेष्ठी पद की प्राप्ति के लिए किये जाते हैं, ऐसा उल्लेख किया गया है। १. अथर्थ सातवलेकर भा० १०-२-२०-२१ २. (क) ये पुरुषे ब्रह्म विदुस्ते विदुः परमेष्ठिनम् । यो वेद परमेष्ठिनं यश्च वेद प्रजापतिम् ॥ अथर्व० १०-७-१७ (ख) व्यात्त परमेष्ठिनो ब्रह्मणापीपदाम तम् । अथर्व० १०-५-४२ ३. अथर्व० सातवलेकर भा० १०-७-१७ ४. ब्रह्मचारी जनयन् ब्रह्मापो लोकं प्रजापति परमेष्ठिनं विराजम । अथर्व० ११-७-७ ५. इदं प्रापमुत्तमं काण्ड मस्य यस्माल्लोकात् परमेष्ठी समाप । अथर्व० १२-३-४५ ६. अथर्व, सातवलेकर भाष्य १२-३-४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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