Book Title: Sramana 1992 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 58
________________ श्रमण, जनवरी-मार्च, १९९२ जा सकता है कि यह परमेष्ठी शब्द / पद तब तक रूढ़ या प्रचलित न हुआ हो ? अथवा 'महानिशीथकार' ने 'पंचमंगल महाश्रुत स्कंध' शब्द अधिक उपयुक्त समझा हो क्योंकि महानिशीथ सूत्र में उपधान विधि के अन्तर्गत इसकी चर्चा की है । अथवा यह सर्व मंगलों में प्रमुख तथा प्रथम मंगल स्वरूप होने से भी हो सकता है कि इसे पंचमंगल महाश्रुतस्कंध कहा गया हो अथवा पंचमंगलमहाश्रुत स्कंध शब्द परमेष्ठी शब्द से अधिक माहात्म्य लिए हुए हो ? ५६ इससे पश्चाद्वर्ती ग्रंथों में ग्रन्थकारों ने परमेष्ठी पद का प्रयोग प्रचुरता से किया है। दिगम्बर श्रुत साहित्य में आचार्य कुंदकुंद रचित 'मोक्षपाहुड' में स्पष्टतया उल्लिखित है कि - अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पाँच परमेष्ठी हैं । वे आत्मा के विषय में चेष्टा रूप हैं, आत्मा की अवस्था है, इसलिए निश्चय से मुझे आत्मा का ही शरण है । श्री कुंदकुंदाचार्य ( पहली शती) ने स्पष्टतया इन पाँच पदों का परमेष्ठी रूप से विधान किया है। इसके अतिरिक्त 'स्वयंभू स्तोत्र' के टीकाकार ने इसकी व्याख्या की है, जो परम पद में स्थित है, वह परमेष्ठी है । २ 'भाव पाहुड' तथा 'समाधि शतक' में वर्णन है, जो इंद्र, चंद्र, धरणेन्द्र के द्वारा वंदित ऐसे परम पद में स्थित है, वह परमेष्ठी होता है । इस प्रकार सर्वप्रथम कुंदकुंदाचार्य के साहित्य में इसकी उपलब्धि होती है । पश्चाद्वर्ती अनेक ग्रंथों में परमेष्ठी शब्द का प्रयोग किया गया है । जैन वाङ्मय के अतिरिक्त जैनेतर साहित्य में 'परमेष्ठी' शब्द का उपयोग किया गया है या नहीं ? उस पर भी हम दृष्टिपात करें । भारतीय वाङ्मय में प्राचीनता की अपेक्षा वेदों का महत्त्व सर्वाधिक है । वेदों में 'परमेष्ठी' पद का उल्लेख कहाँ-कहाँ किस संदर्भ में हुआ है, उसका आकलन करेंगे । १. मोक्ष पाहुड, गा० १०४ २. स्व. स्तोत्र टी० ३९ ३. भा०पा०टी० १४९-२९३-८; समाधि श० टी० ६ २२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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