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श्रमण, जनवरी-मार्च १९९२
और गच्छाचार को गिना गया है। कहीं संस्तारक को नहीं गिनकर उसके स्थान पर गच्छाचार और मरण-समाधि को गिना गया है।'
नन्दी और पाक्षिक के उत्कालिक सूत्रों के वर्ग में देवेन्द्रस्तव, तंदुलवैचारिक, चन्द्रकवेध्यक, गणिविद्या, मरणविभक्ति, आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान-ये सात प्रकीर्णक तथा कालिकसूत्रों के वर्ग में ऋषिभाषित और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति-ये दो प्रकीर्णक, अर्थात् वहाँ कुल नौ प्रकीर्णकों का उल्लेख मिलता है ।
यद्यपि प्रकीर्णकों की संख्या और नामों के विषय में मतभेद देखा जाता है, किन्तु यह सुनिश्चित है 'कि प्रकीर्णकों के सभी वर्गीकरणों में चन्द्रकवेध्यक को स्थान मिला है। इसका परिचय देना ही इस लेख का अभीष्ट है। चन्टकवेध्यक प्रकीर्णक__चन्द्रकवेध्यक १७५ गाथाओं की पद्यात्मक रचना है। सर्वप्रथम इसका उल्लेख नन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र में उपलब्ध होता है। उक्त दोनों ही ग्रन्यों में यह आवश्यक व्यतिरिक्त श्रुत के अन्तर्गत समाविष्ट
१. प्राकृत साहित्य का इतिहास-जैन, जगदीश चन्द्र, प्रका० चौखम्भा
विद्या भवन, वाराणसी; ई० सन् १९६१, पृष्ठ १२३ । २. देखें-वही पृ० १२३ टिप्पणी । ६. (क) नन्दीसूत्र–सम्पा० मुनि मधुकर, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति,
व्यावर; ई० सन् १९८२, पृ० १६१-१६२ (ख) पाक्षिकसूत्र---प्रका० देवचन्द्र लाल भाई जैन पुस्तकोद्धार, पृ० ७६ । ४. (क) उक्कालिअं अणेगविहं पण्णतं तं जहा-(१) दसवेआलिअं,... (१५)
चंदाविज्झयं,' (१९) महापच्चक्खाणं, एवमाइ । ---नन्दीसूत्र, पृ० १६१-१६२ । (ख) नमो तेसिं ख मासमणाणं, ....' 'अंगाबहिरं उक्कालियं भगवंता ।
तंजहा--दसवेआलिअं (१), चंदाविज्झयं (१४). महापच्चक्खाणं (२८) --पाक्षिकसूत्र, पृ० ७६ ।
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