Book Title: Sramana 1992 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 39
________________ गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास विशेषता यह है कि उन्होंने अपने पूर्ववर्ती इन जैन चिन्तकों, माध्यमिकों एवं प्राचीन वेदान्तियों विशेषरूप से गौड़पाद के विचारों का लाभ उठाकर जैन अध्यात्म को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाया । मात्र यही नहीं उन्होंने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों की गुणस्थान, जीवस्थान, मार्गणास्थान आदि अवधारणाओं से पूर्णतया अवगत होकर भी शुद्धनय की अपेक्षा से आत्मा के सम्बन्ध में इन अवधारणाओं का स्पष्ट रूप से खण्डन किया है । यह प्रतिषेध तभी संभव था, जब उनके सामने ये अवधारणायें सुस्थिर होती । हमें यह भी स्मरण रखना चाहिये कि आध्यात्मिक विकास के इन विभिन्न वर्गों की संख्या के निर्धारण में उमास्वाति पर बौद्ध परम्परा और योग परम्परा का भी प्रभाव हो सकता है । मुझे ऐसा लगता है कि उमास्वाति ने आध्यात्मिक विशुद्धि की चतुर्विध, सप्तविध और दसविध वर्गीकरण की यह शैली सम्भवतः बौद्ध और योग परम्पराओं से ग्रहण की होगी । स्थविरवादी बौद्धों में सोतापन्न, सकृदागामी, अनागामी और अर्हत् ऐसी जिन चार अवस्थाओं का वर्णन है वे परिषह के प्रसंग में उमास्वाति की बादर - सम्पराय, सूक्ष्म - सम्पराय, छद्मस्थवीतराग और जिनसे तुलनीय मानी जा सकती हैं। योगवशिष्ठ में आध्यात्मिक विकास की ज्ञान की दृष्टि से जिन सात अवस्थाओं का उल्लेख है उन्हें ध्यान के सन्दर्भ में प्रतिपादित तत्त्वार्थसूत्र की सात अवस्थाओं से तुलनीय माना जा सकता है । इसी प्रकार महायान सम्प्रदाय में आध्यात्मिक विकास की जिन दस अवस्थाओं का चित्रण है, उन्हें निर्जरा की चर्चा के प्रसंग से उमास्वाति द्वारा प्रतिपादित दस अवस्थाओं से तुलनीय माना जा सकता है । इसी प्रकार आजीविकों द्वारा प्रस्तुत आठ अवस्थाओं से भी इनकी तुलना की जा सकती है । यद्यपि इस तुलनात्मक अध्ययन के सम्बन्ध में अभी गहन चिन्तन की अपेक्षा है, इस सन्दर्भ में विस्तृत चर्चा अगले किसी लेख में करेंगे । ३७ १. विस्तृत विवरण हेतु देखें - जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययम भाग २, डॉ० सागरमल जैन, प्राकृत भारती जयपुर, पृ० ४७१-३७९ एवं पृ० ४८७-४८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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