________________
३२
श्रमण, जनवरी-मार्च, १९९२
होता है । अविरत और देशविरत में रौद्रध्यान की उपस्थिति पायी जाती है । अप्रमत्तसंयत को धर्मध्यान होता है। साथ ही यह उपशांत कषाय एवं क्षीण कषाय को भी होता है। शुक्लध्यान, उपशांत कषाय, क्षीणकषाय और केवली में सम्भव होता है। इस प्रकार यहाँ अविरत, देशविरत, प्रमत्त संयत, अप्रमत्त संयत, उपशान्तकषाय (उपशान्त मोह) क्षीणकषाय (क्षीण मोह) और केवली ऐसी सात अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है, पुनः कर्मनिर्जरा (कर्म विशुद्धि) के प्रसंग में सम्यक्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनन्तवियोजक, दर्शनमोहक्षपक, (चारित्रमोह) उपशमक, उपशांत (चारित्र) मोह, (चारित्रमोह) क्षपक, क्षीणमोह और जिन ऐसी दस क्रमशः विकासमान स्थितियों का चित्रण हुआ है । यदि हम अनन्त वियोजक को अप्रमत्त-संयत, दर्शनमोह क्षपक को अपूर्वकरण (निवृत्तिबादर सम्पराय) और उपशमक (चारित्र मोह-उपशमक) को अनिवृत्ति करण और क्षपक को सूक्ष्म सम्पराय मानें तो इस स्थिति में वहाँ दस गुणस्थानों के नाम प्रकारान्तर से मिल जाते हैं । यद्यपि अनन्तवियोजक, दर्शनमोहक्षपक, उपशमक, उपशांत-मोह तथा क्षपक आदि अवस्थाओं को उनके मूल भावों की दृष्टि से तो आध्यात्मिक विकास की इस अवधारणा से जोड़ा जा सकता है, किन्तु उन्हें सीधा-साधा गुणस्थान के चौखटे में संयोजित करना कठिन है। क्योंकि गुणस्थान सिद्धान्त में तो चौथे गुणस्थान में ही अनन्तानुबन्धी कषायों का क्षय या क्षयोपशम हो जाता है। पुनः उपशम श्रेणी से विकास करने वाला तो सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में भी दर्शनमोह और अनन्तानुबंधी कषाय का उपशम ही करता है, क्षय नहीं। अतः अनन्तवियोजक का अर्थ अनन्तानुबन्धी कषाय का क्षय मानने से उपशम श्रेणी की दृष्टि १. तदविरतदेशविरत प्रमत्तसंयतानाम् ॥३५॥ हिंसाऽनृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो
रौद्रमविरतदेशविरतयोः ॥३६॥ आज्ञाऽपायविपाकसंस्थान विचयाय धर्ममप्रमत्तसंयतस्य ॥३७॥ उपशान्तक्षीण कषाययोश्च ॥३८॥ शुक्ले चाद्य पूर्वविदः ।।३९॥ परे केवलिनः ।।४०॥
--तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ९ २. सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षण कक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुण निर्जराः ॥४७॥ - तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org