Book Title: Sramana 1992 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 12
________________ [१०] जीवनमूल्यों का ही सिद्धान्त है, पर्याप्त लोकप्रिय रहा है । भारतीय विचारकों ने जीवन के चार पुरुषार्थ या मूल्य माने हैं - १. अर्थ (आर्थिक मूल्य) - जीवन यात्रा के निर्वाह के लिए भोजन, वस्त्र, आवास आदि की आवश्यकता होती है; अतः दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले इन साधनों को उपलब्ध करना ही अर्थपुरुषार्थ है । २. काम (मनोदैहिक मूल्य ) - जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन जुटाना अर्थपुरुषार्थ और उन साधनों का उपभोग करना कामपुरुषार्थ है । दूसरे शब्दों में विविध इंद्रियों के विषयों का भोग कामपुरुषार्थ है । ३. धर्म (नैतिक मूल्य ) - जिन नियमों के द्वारा सामाजिक जीवन या लोकव्यवहार सुचारु रूप से चले, स्व-पर कल्याण हो और जो व्यक्ति को आध्यात्मिक पूर्णता की दिशा में ले जाये, वह धर्मपुरुषार्थ है । ४. मोक्ष (आध्यात्मिक मूल्य) - आध्यात्मिक शक्तियों का पूर्ण प्रकटीकरण मोक्ष है | (अ) जेन दृष्टि में पुरुषार्थचतुष्टय सामान्यतया यह समझा जाता है निवृत्तिप्रधान जैन दर्शन में मोक्ष ही एकमात्र पुरुषार्थ है । धर्मपुरुषार्थ की स्वीकृति उसके मोक्षानुकूल होने में ही है । अर्थ और काम इन दो पुरुषार्थों का उसमें कोई स्थान नहीं है । जैन- विचारकों के अनुसार अर्थ अनर्थ का मूल है, ' सभी काम दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं। लेकिन यह विचार एकांगी ही माना जायेगा । कोई भी जिनवचन एकान्त या निरपेक्ष नहीं है । जैन विचारकों ने सदैव ही व्यक्ति को स्वपुरुषार्थ से धनोपार्जन की प्रेरणा दी है । वे यह मानते हैं कि व्यक्ति को केवल अपने पुरुषार्थ से उपार्जित सम्पत्ति के भोग करने का अधिकार है । दूसरों के द्वारा उपार्जित सम्पत्ति के भोग करने का उसे कोई अधिकार नहीं है । गौतमकुलक में कहा गया है कि पिता के द्वारा उपार्जित लक्ष्मी निश्चय ही पुत्र के लिए बहन होती है और दूसरों की लक्ष्मी परस्त्री के समान होती है । दोनों का ही भोग वर्जित है । अतः स्वयं अपने पुरुषार्थं से धन का उपार्जन करके ही उसका भोग करना न्यायसंगत है । १. मरणसमाधि, ६०३. २. उत्तराध्ययन, १३/१६ ३. प्राकृत सूक्तिसरोज, ११।११. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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