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श्रमण, जनवरी-मार्च, ११९२
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चूर्णि ', तत्त्वार्थभाष्य की सिद्धसेनगणि की वृत्ति, हरिभद्र की तत्त्वार्थ सूत्र की टीका आदि में इस सिद्धान्त का विस्तृत उल्लेख पाया जाता है ।
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हमारे लिये आश्चर्य का विषय तो यह है कि आचार्य उमास्वाति ने जहाँ अपने तत्त्वार्थ सूत्र में जैन धर्म एवं दर्शन के लगभग सभी पक्षों पर प्रकाश डाला है, वहाँ उन्होंने १४ गुणस्थानों का स्पष्ट रूप से कहीं भी निर्देश नहीं किया है । तत्त्वार्थभाष्य, जो तत्त्वार्थसूत्र पर उमास्वाति की स्वोपज्ञ टीका मानी जाती है, उसमें भी कहीं गुणस्थान की अवधारणा का उल्लेख नहीं है । अतः यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उपस्थित होता है कि क्या तत्त्वार्थसूत्र के रचना काल तक जैनधर्म में गुणस्थान की अवधारणा का विकास नहीं हुआ था ? और यदि उस काल तक गुणस्थान की अवधारणा विकसित हो चुकी थी तो फिर उमास्वाति ने अपने मूल ग्रन्थ तत्त्वार्थ सूत्र में अथवा उसकी स्वोपज्ञटीका तत्त्वार्थभाष्य में उसका उल्लेख क्यों नहीं किया ? जबकि वे गुणस्थान - सिद्धान्त के अन्तर्गत व्यवहृत कुछ पारिभाषिक शब्दों का, यथा— बादर-संपराय, सूक्ष्म-संपराय, उपशान्त मोह, क्षीण मोह आदि का स्पष्ट रूप से प्रयोग करते हैं । यहाँ यह तर्क भी युक्ति संगत नहीं है कि उन्होंने ग्रन्थ को संक्षिप्त रखने के कारण उसका उल्लेख नहीं किया हो, क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र के नवें अध्याय में उन्होंने आध्यात्मिकविशुद्धि (निर्जरा) की दस अवस्थाओं को सूचित करते हुए एक लम्बा सूत्र बनाया है । पुनः तत्त्वार्थभाष्य तो उनका एक व्याख्यात्मक
१. आवश्यकचूर्णि (जिनदासगणि), उत्तर भाग, पृ० १३३-१३६ ।
२. एतस्य त्रयः स्वामिनश्चतुर्थ - पञ्चम षष्ठ गुणस्थानवर्तिनः ' । तत्त्वार्था धिगमसूत्र (सिद्धसेन गणि कृत भाष्यानुसारिणिका समलङ्कृतं - सं० हीरालाल रसिकलाल कापडिया ) ९ - ३५ की टीका
३. श्रीतत्वार्थ सूत्रम् ( टीका - हरिभद्र ), ऋषभदेव केशरीमल संस्था रतलाम सं० १६६२, पृ० ४६५-४६६
४. सम्यग्दृष्टिश्रावक
विरतान्नतवियोजकदर्शन मोहक्षपकोपशमकोपशमको
पशान्तमोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशो संख्येयगुणनिर्जराः ९-४७
- तत्वार्थ सूत्र, नवक अध्याय, पृ० १३६; पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी १९८५.
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