Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar

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Page 19
________________ प्रस्तुति आचार्यवर श्री कालूगणी की स्मृति उस प्रकाशपुज की स्मृति है, जिसकी रश्मियो से असत्य लोगो का जीवन-पथ प्रकाशित हुआ है। उन्होंने समग्र जीवन मे विद्या की आराधना की । उनकी आराधना केवल स्वमुखी नही थी, किन्तु उभयमुखी थी। दूसरो के लिए भी उनका अनुदान बहुत महत्त्वपूर्ण है। मनुष्य-स्वभाव उनके ऋण को स्वीकारता है, जिनसे कुछ अनुदान मिलता है । हम सब आचार्यवर के ऋणी है। वणी आदमी उत्रण होने का भी प्रयत्न करता है। आगम-वाणी है कि गुरु, माता-पिता और स्वामी के ऋण से उऋण होना सरल काम नहीं है। हम ऋण से उऋण हो सके या नहीं, यह चिंता करणीय नही है। करणीय यह है कि हम उऋण होने का प्रयत्न करे । यह प्रयत्न ही सही दिशा का सूचन है। आचार्यवर की जन्मशती पर चतुर्विध धर्म-सघ ने कृतज्ञतापूर्ण भाव से उनके चरणो मे विनम्र श्रद्धाजलि समर्पित करने का सकल्प किया है। उस सकल्प के विभिन्न रूपो मे एक रूप है यह स्मृति-ग्रन्थ । इस स्मृति-ग्रन्थ की परिकल्पना और प्रकल्पना चालू परिपाटी से भिन्न है । इसमे उनके जीवन के विषय मे विशद वर्णन नहीं है और विविध विषयो पर लेख आमनित नहीं किए गए हैं। यह ग्रथ पुस्तकालय का शोभा-ग्रन्थ न बने, किन्तु उपयोगी ग्रथ बने, इस दृष्टि से यह एक निश्चित सीमा मे बधा हुआ ग्रन्थ है । इसमे विपयो का विशेषीकरण है और इस विशेषीकरण के आधार पर ही इसमे लेख आमनित किए गए है। इस योजना से यह ग्रय जैन परम्परा मे निर्मित व्याकरण और शब्दकोश को सदर्भ ग्रन्थ बन गया है। आचार्यवर के जीवन-वृत्त का एक स्वतन्त ग्रन्थ है । श्रद्धाजलि और सस्मरण एक पुस्तक मे सकलित है । उनके शिष्यो तथा प्रशसको द्वारा उनकी प्रशस्ति मे लिखित सस्कृत काव्य-काव्यकुसुमाजलि' के रूप मे एक पुस्तक मे सकलित है। ये तीनो अन्य स्मृति-ग्रन्थ से जुडे हुए नही है, किंतु स्वतन है । साधारणपाठको के लिए

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