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[ समराइज्यका
की है, वैसी दार्शनिक क्षेत्र में किसी दूसरे विद्वान् ने, कम से कम उनके समय तक तो प्रदर्शित नहीं की' । शान्तरक्षित ने भिन्न-भिन्न स्थानों पर जैन मन्तथ्यों की परीक्षा की है तो हरिभद्र ने बौद्ध मन्तव्यों की, परन्तु दोनों के दृष्टिकोण भिन्न हैं । शान्तरक्षित मात्र खण्डनपटु हैं, किन्तु हरिभद्र तो विरोधी मत की समीक्षा करने पर भी, जहाँ तक सम्भव हो कुछ सार निकालकर उस मत के पुरस्कर्ता के प्रति सम्मानवृत्ति भी प्रदर्शित करते हैं । क्षणिकवाद, विज्ञानवाद और शून्यवाद - इन तीनों बौद्धवादों की समीक्षा करने पर भी हरिभद्र इन वादों के प्रेरक दृष्टि-बिन्दुओं को अपेक्षा - विशेष से न्याय्यस्थान देते हैं और स्वसम्प्रदाय के पुरस्कर्ता ऋषभ, महावीर आदि का जिन विशेषणों से वे निर्देश करते हैं, वैसे ही विशेषणों से उन्होंने बुद्ध का भी निर्देश किया है और कहा है कि बुद्ध जैसे महामुनि एवं अहंत की देशना, अर्थहीन नहीं हो सकती। ऐसा कहकर उन्होंने सूचित किया है कि क्षणिकत्व की एकांगी देशना आसक्ति की निवृत्ति के लिए ही हो सकती है । " इसी भाँति बाह्य पदार्थों में आसक्त रहनेवाले, आध्यात्मिक तत्त्व से नितान्त पराङ्मुख अधिकारियों को उद्देश्य करके ही बुद्ध ने विज्ञानवाद का उपदेश दिया है तथा शून्यवाद का उपदेश भी उन्होंने जिज्ञासु अधिकारी विशेष को लक्ष्य में रखकर ही दिया है, ऐसा मानना चाहिए। कई विज्ञानवादी और शून्यवादी बौद्ध आचार्यों के सामने इतर बौद्ध विद्वानों की ओर से प्रश्न उपस्थित किया गया है कि तुम विज्ञान और शून्यवाद की हो बातें करते हो, परन्तु बौद्ध पिटकों में जिन स्कन्ध, धातु, आयतन आदि बाह्य पदार्थों का उपदेश है, उनका क्या मतलब है ? इनके उत्तर में स्वयं विज्ञानवादियों और शून्यवादियों ने भी अपने सहबन्धु बौद्ध प्रतिपक्षियों से हरिभद्र के जैसे ही मतलब का कहा है कि बुद्ध की देशना अधिकार-भेद से है । जो व्यक्ति लौकिक स्थूल भूमिका में होते थे उन्हें वैसे ही और उन्हीं की भाषा में बुद्ध उपदेश देते थे । हरिभद्र बौद्ध नहीं हैं । फिर भी बौद्धवादों को अधिकार-भेद से योग्य स्थान देकर वे यहाँ तक कहते हैं कि बुद्ध कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं, वह तो एक महान् मुनि हैं और ऐसा होने से बुद्ध जब असत्य का आभास कराने वाला वचन कहें, तब वे सुवैद्य की भाँति विशेष प्रयोजन के बिना वैसा नहीं कह सकते । इस प्रकार हरिभद्र की यह महानुभावता दर्शन-परम्परा में एक विरल प्रदान है । "
पं. दलसुख मालवणिया का कथन है कि हरिभद्र के दो रूप दिखाई पड़ते हैं - एक वह रूप जो धूर्ताख्यान जैसे ग्रन्थों के लेखक के रूप में तथा आगमों की टीका के लेखक के रूप में है । इसमें आचार्य हरिभद्र एक कट्टर साम्प्रदायिक लेखक के रूप में उपस्थित होते हैं। उनका दूसरा रूप वह है जो शास्त्रवार्तासमुच्चय आदि दार्शनिक ग्रन्थों में और उनके योगविषयक अनेक ग्रन्थों में दिखाई पड़ता है। इनमें विरोधी के साथ समाधानकर्ता के रूप में तथा विरोधी की भी ग्राह्य बातों के स्वीकर्ता के रूप में आचार्य
१. पं. सुखलाल संघवी : समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पृ. १०९ ।
२. न चतदपि न न्याय्यं यतो बुद्धो महामुनिः ।
सुवद्विना कार्य द्रव्यासत्यं न भाषते । शास्त्रवार्तासमुच्चय, ४६६
३. अन्ये स्वभिदधत्येवमेतदास्यानिवृत्तये ।
क्षणिकं सर्वमेवेति बृद्धेनोक्तं न तत्वतः ।। वही, ४६४
४. विज्ञानमात्रमप्येवं बाह्यसंगनिवृत्तये ।
विनेयान् कश्चिदाश्रित्य यद्वा तद्देशनार्हतः ॥ वही, ४६५ एवं च शून्यवादोऽपि तद्विनेयानुगुण्यतः ।
अभिप्रायत इत्युक्तो लक्ष्यते तत्ववेदिना । वही ४७६ ५. पं. पुखलाल संघवी : समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पू. ५७,५९ ।
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