Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 19
________________ भूमिका ] विद्वान् थे । हरिभद्र ने याकिनी महत्तरा को धर्ममाता के रूप में स्वीकार कर अपने को जैन साहित्य में प्रवीण बनाया। इस प्रकार अन्य धर्म के आचार्यों को पराजित करने का पूरा लाभ उन्हें प्राप्त हो गया। उन्होंने संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं में लिखा । आचार्य समन्तभद और सिद्धस्न के बाद अकलंक उन समर्थं आचार्यों में अग्रगण्य थे जिन्होंने संस्कृत को जैन धर्म की साहित्यिक भाषा बन ने में गति दी। हरिभद्र जैन सिद्धान्तों को सामने लाये और दूसरे दर्शनों के समक्ष उनकी सत्यता स्थापित की। उनकी साहित्यिक गति-विधि आश्चर्यजनक थी । आचार्य अभयदेव (१०६६ ई.) ने अपने ग्रन्थ पञ्चाशकटीका के अन्त में लिखा है"समाप्ता चेयं शिष्यहिता नाम्नासितपटल - प्रधानप्रावचनिकपुरुष प्रव रचतुर्दश शतसंख्या प्रकरण प्रबन्धप्रणायि सुगृहीतनामधेय श्रीहरिभद्रसूरिविरचित पञ्चाशकाख्य प्रकरणटीकेति । " प्रो. एम. सी. मोदी ने समराइच्चकहा ( प्रथम और द्वितीय भव) की अंग्रेजी प्रस्तावना में लिखा है "Haribhadra, however seems of have wandered for and wide in upper India with which he shows much acquaintance in his 'Sama aircakaha' though he does not seem to have crossed the Vindhya Mountains. There is ample ground to believe that he must have also travelled in Eastern India where Budhism still was flourishing. and it is there that he acquired sound knowledge of Buddhist Philosophy and Logic. He seems to have appreciated Buddhist Logic as is shown by his commentary on Dignaga's Nyaya. Pravesa and extensive quotation from and re pectfu mention of Dharmakirti. He also sawed महानिशीथ from being destroyed. To quote प्रभावकचरित -- "चिरविलिखितवर्णशीर्णभग्नप्रविवर पत्रसमूह स्तकस्थम् । कुशलमतिरिहोद्दधार जंनोपनिषदिकं स मह निशीथसूत्रम् ॥" अर्थात् हरिभद्र उत्तर भारत के विस्तृत क्षेत्र में घूमे प्रतीत होते हैं जैसा कि समराइच्चकहा में उनकी जानकारी से स्पष्ट होता है, फिर भी उन्होंने विन्ध्याचल को पार नहीं किया। इस बात पर विश्वास करने का बड़ा आधार है कि उन्होंने पूर्वी भारत की सैर की होगी, जहाँ पर बौद्ध धर्म अब भी फल-फूल रहा था और उन्होंने वहीं बौद्धदर्शन और न्याय का गम्भीर ज्ञानार्जन किया। उन्होंने बौद्धन्याय का मूल्यांकन किया प्रतीत होता है, जैसा कि उनकी दिङ्नाग की न्यायप्रवेश की रोका का और धर्मकीर्ति का सम्मानपूर्वक निर्देश करने से प्रकट है। उन्होंने महानिशीथसूत्र को नष्ट होने से बचाया। प्रभावकचरित में कहा गया है चिरविलिखितवर्णशीर्ण भग्न प्रविवरपत्रमा हपुस्तकस्थम । कुशलमतिरिहोद्दधार जैनोपनिषदकं स महानिशीथसूत्रम ॥' " हरिभद्र की यह विशेषता है कि उन्होंने अपने प्रतिपक्षी के प्रति जैसी हार्दिक बहुमानवृत्ति प्रदर्शित १, समराइचचकहा (भविवियं) - प्रस्तावना । Jain Education International १७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 ... 516