________________ सम्मतिप्रकरण-काण्ड 1 [ (2) स्वकार्ये परतः प्रामाण्यवादप्रतिक्षेपः-पूर्वपक्षः] नापि स्वकार्येऽर्थतथाभावपरिच्छेदलक्षणे प्रवर्त्तमानं प्रमाणं स्वोत्पादककारणव्यतिरिक्तनिमित्तापेक्षं प्रवर्तत इत्यभिधातुं शक्यम् / यतस्तन्निमित्तान्तरमपेक्ष्य स्वकार्ये प्रवर्त्तमानं कि A संवादप्रत्ययमपेक्ष्य प्रवर्तते, B आहोस्वित् स्वोत्पादककारणगुणानपेक्ष्य प्रवर्तत इति विकल्पद्वयम् / तत्र यद्याद्यो विकल्पोऽभ्युपगम्यते तदा चक्रकलक्षणं दूषणमापतति / तथाहि-प्रमाणस्य स्वकार्ये प्रवृत्ती सत्यामर्थक्रियाथिनां प्रवत्तिः, प्रवत्तौ चार्थक्रियाज्ञानोत्पत्तिलक्षणः संवादः, तं च संवादमपेक्ष्य प्रमाणं स्वकार्येऽर्थतथाभावपरिच्छेद लक्षणे प्रवर्तते इति यावत्प्रमाणस्य स्वकार्ये न प्रवृत्तिन तावदर्थक्रियाथिनां प्रवृत्तिः, तामन्तरेण नार्थक्रियाज्ञानसंवादः, तत्सद्भावं विना प्रम रणस्य तदपेक्षस्य स्वकार्ये न प्रवृत्तिरिति स्पष्टं चक्नकलक्षणं दूषणमिति / अनुमानरूप ज्ञान भो, जिस लिंग यानी हेतु का साध्य के साथ अविनाभाव अर्थात् व्याप्ति प्रतीत हो चुकी है उसी लिंग द्वारा उत्पन्न होता है और इसमें हेतु को किसी अन्य के सहकार की अपेक्षा नहीं है / उस अनुमानज्ञान का प्रामाण्य भी उसी लिंग से उत्पन्न होता है। इस प्रकार समस्त ज्ञानों में प्रामाण्य भी ज्ञान की उत्पत्ति के कारणों से ही उत्पन्न होता है। प्रामाण्य की उत्पत्ति के कारण, ज्ञान की उत्पत्ति के कारणों से भिन्न नहीं है। सारांश, सर्वत्र विज्ञान के कारण समूह को छोड़कर अन्य किसी कारण को सापेक्ष होने वाला प्रामाण्य स्वतः उत्पन्न होता है ऐसा कहा जाता है / इस प्रकार प्रामाण्य उत्पत्ति में परत: यानी पर की अपेक्षा से उत्पन्न होने वाला नहीं है / [(2) स्वकार्य में प्रामाण्य को परापेक्षा नहीं है-पूर्वपक्ष चालु ] जो प्रामाण्ययुक्त प्रमाणज्ञान का कार्य है-अर्थतथाभावपरिच्छेद, अर्थात् वस्तु के तात्त्विक स्वरूप का प्रकाश, इस कार्य में जब प्रमाण ज्ञान प्रवत्ति करता है तब वह अपने उत्पादक कारणों से भिन्न किसी अन्य निमित्त कारण की अपेक्षा करता है-ऐसा भी नहीं कह सकते। कारण, अगर कहें-प्रमाण अपने कार्य में प्रवर्त्तमान होने के लिये किसी अन्य निमित्त की अपेक्षा करता है तो यह बताइये कि कौन से निमित्त की अपेक्षा रख कर प्रमाण ज्ञान अपने कार्य में प्रवक्त होता है? क्या A संवादीज्ञान की अपेक्षा रखकर ? या B अपने उत्पादक कारण गुण की अपेक्षा रखकर प्रवृत्त होता है ? ये दो विकल्प प्रस्तुत हो सकते हैं। [संवादिज्ञान की अपेक्षा में चक्रक दोष ] इनमें से यदि A प्रथम विकल्प को स्वीकार किया जाय तो चक्रक नाम का दोष प्राप्त होता है / दोष का स्वरूप इस प्रकार है-प्रमाण अर्थतथाभावपरिच्छेदस्वरूप अपने कार्य में जब प्रवृत्त हो जायगा तभी अर्थक्रिया के अभिलाषियों की प्रवृत्ति होगी। उदाहरणार्थ-घट के प्रमाणज्ञान से घट को यथार्थता का निर्णय होने पर ही घटार्थी की घट में प्रवृत्ति होती है। यह प्रवृत्ति होने पर संवाद संपन्न होगा अर्थात् प्रमाणज्ञान निर्दिष्ट विषय की प्राप्तिस्वरूप अर्थक्रिया का ज्ञान उत्पन्न होगा, तथा, यह संवाद संपन्न होने पर ही प्रमाण अर्थ तथा भाव परिच्छेदस्वरूप अपने कार्य में प्रवृत्त होगा। इसलिये जब तक यथार्थ वस्तुपरिच्छेदरूप अपने कार्य में प्रमाण प्रवृत्त नहीं होगा तब तक अर्थक्रिया के अर्थात् प्रमाण निर्दिष्ट विषय की प्राप्ति के अभिलाषीयों की प्रवृत्ति नहीं होगी, इस