________________ प्रथमखण्ड का० १-प्रामाण्यवाद प्रथ-चक्षुरादेविज्ञानकारणादुपजायमानत्वात्प्रामाण्यं परत उपजायते इति यद्यभिधीयते-तदभ्युपगम्यत एव / प्रेरणाबुद्धेरपि अपौरुषेयविधिवाक्यप्रभवायाः प्रामाण्योत्पत्त्यभ्युपगमात् / तथाऽनुमानबुद्धिरपि गृहीताऽविनाभावानन्यापेक्षलिंगादुपजायमाना तत एव गहीतप्रामाण्योपजायत इति सर्वत्र विज्ञानकारणकलापव्यतिरिक्तकारणान्तरानपेक्षमुपजायमानं प्रामाण्यं स्वत उत्पद्यत इति नोत्पत्तौ परत:प्रामाण्यम्। होती क्योंकि कारणभूत मिट्टीपिंड में जलाहरण शक्ति है ही नहीं। इसलिये यह मानना होगा कि घट में यह शक्ति स्वतः आविर्भूत होती है। इस प्रकार ज्ञान में जो पदार्थ के तात्त्विक स्वरूप को प्रकाशित करने की शक्ति है वह ज्ञान के उत्पादक कारण चक्षु आदि में विद्यमान नहीं होने से वह चक्षु आदि से उत्पन्न नहीं मान सकते किन्तु स्वतः ही प्रादुर्भूत होती है-ऐसा सिद्ध होता है / यह केवल हमारा ही प्रतिपादन है ऐसा नहीं है किन्तु इस विषय में कहा भी है कि-'आत्मलाभे हि०.......' इत्यादि / अर्थ:-"पदार्थों को अपने स्वरूपलाभ अर्थात् अपनी उत्पत्ति के लिये कारण की अपेक्षा होती है किन्तु पदार्थ जब उत्पन्न हो जाते हैं तब अपने कार्यों में उनकी प्रवृत्ति स्वयं ही होती है। जैसे कि-"घट अपनी उत्पत्ति के लिये मिट्री के पिण्ड, दण्ड और चक्र आदि की अपेक्षा करता है, परन्तु जल लाने के अपने कार्य में उसको मिट्टी के पिण्ड आदि की अपेक्षा नहीं रहती।" [विज्ञानकारण से प्रामाण्योत्पत्ति होने से परतः कहना स्वीकार्य ] यदि आप ज्ञान के कारण चक्षु आदि से प्रामाण्य उत्पन्न होता है इसलिये प्रामाण्य को परतः उत्पन्न अर्थात् पर की अपेक्षा से उत्पन्न होने वाला कहते हैं तो इस वस्तु का तो हम स्वीकार ही करते हैं / जिसको आप पर की अपेक्षा से कहते हैं वह वस्तुतः स्व की अपेक्षा से है। जिन कारणों से ज्ञान उत्पन्न होता है उन्हीं कारणों से अतिरिक्त किसी भी कारण से ज्ञान का प्रामाण्य उत्पन्न नहीं होता है-यही प्रामाण्य का स्वतोभाव है / धर्म की परतः उत्पत्ति का तात्पर्यार्थ यही है कि जहाँ मात्र धर्मी के कारणों द्वारा ही उस धर्म की उत्पत्ति नहीं होती है किन्तु धर्मी के कारणों से अतिरिक्त कारण की धर्म की उत्पत्ति में अपेक्षा रहती है, अर्थात् उस धर्म की उत्पत्ति अतिरिक्त कारण द्वारा होती है / आप प्रामाण्य को परतः उत्पन्न इस लिये कहते हैं कि प्रामाण्य अपने स्वतन्त्र कारणों से उत्पन्न नहीं किन्तु विज्ञान के कारणों से उत्पन्न होता है, किन्तु हम इसी को स्वतः उत्पत्ति कहते हैं-केवल नाम के बदल देने से वस्तु का स्वरूप नहीं पलट जाता / [प्रेरणाबुद्धि और अनुमान का स्वतः प्रामाण्य ] (प्रेरणाबृद्धे रपि०.......इत्यादि) यही बात अपौरुषेय वाक्य के प्रामाण्य में लागू होती है, क्योंकि अपौरुषेय अर्थात् किसी पुरुष के द्वारा नहीं उच्चरित ऐसे वाक्य से उत्पन्न होने वाली प्रेरणा अर्थात् विधि-निषेध जनित नोदना स्वरूप बुद्धि में भी प्रामाण्य इसी प्रकार अपौरुषेय वाक्यों से ही उत्पन्न होता है / विधिवाक्य से जैसे विधि का ज्ञान उत्पन्न होता है वैसे ही विधिज्ञाननिष्ठ प्रामाण्य भी उत्पन्न होता है। इसलिये विविज्ञान का प्रामाण्य भी स्वतः उत्पन्न माना गया है। इसी प्रकार