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प्रस्तावना
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तो अकारण मानता है पर विभाव को सकारण ही मानता है। ज्ञानी जीव स्वभाव में स्वत्वबुद्धि रखता है और विभाव में परत्वबुद्धि। इसीलिये वह बन्ध से बचता है।
यह अधिकार २३७ से लेकर २८७ गाथा तक चलता है। मोक्षाधिकार
आत्मा की सर्व कर्म से रहित जो अवस्था है उसे मोक्ष कहते हैं। मोक्ष शब्द ही इसके पूर्व होनेवाली बद्ध अवस्था का प्रत्यय कराता है। मोक्षाधिकार में मोक्षप्राप्ति के कारणों का विचार किया गया है। प्रारम्भ में ही कुन्दकुन्दस्वामी लिखते हैंजिस प्रकार चिरकाल से बन्धन में पड़ा हुआ कोई पुरुष उस बन्धन के तीव्र मन्द या मध्यम स्वभाव को जानता है तथा उसके कालको भी समझता है परन्तु यदि उस बन्धन का-बेड़ी का छेदन नहीं करता है तो वह उस बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता। इसी प्रकार जो जीव कर्मबन्ध के प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग बन्ध को जानता है परन्तु उस बन्धको छेदने का पुरुषार्थ नहीं करता तो वह उस कर्मबन्ध से मुक्त नहीं हो सकता।
इस सन्दर्भ में कुन्दकुन्द स्वामी ने बड़ी उत्कृष्ट बात कही है। वह उत्कृष्ट बात है सम्यक्चारित्र। हे जीव! तुझे श्रद्धान है कि मैं कर्मबन्धन से बद्ध हूँ और बद्ध होने के कारणों को भी जानता है परन्तु तेरा यह श्रद्धान और ज्ञान तुझे कर्मबन्धन से मुक्त करनेवाला नहीं है, मुक्त करानेवाला तो यथार्थश्रद्धान और ज्ञान के साथ होनेवाला चारित्ररूप पुरुषार्थ ही है। जब तक इस पुरुषार्थ को अंगीकृत नहीं करेगा तब तक बन्धन से मुक्त होना दुर्भर है। मात्र श्रद्धान और ज्ञान को लिये हुए तेरा सागरों पर्यन्त का दीर्घकाल यों ही निकल जाता है पर तू बंधन से मुक्त नहीं हो पाता। परन्तु उस श्रद्धान और ज्ञान के साथ जहाँ चारित्ररूप पुरुषार्थ को अंगीकृत करता है वहाँ तेरा कार्य बनने में विलम्ब नहीं लगता। यहाँ तक कि अन्तर्मुहूर्त में भी काम बन जाता है।
हे जीव! तू मोक्ष किसका करना चाहता है? आत्मा का करना चाहता हूँ। पर इस संयोगीपर्याय के अन्दर तूने आत्मा को समझा या नहीं? इस बात का तो विचार कर। कहीं इस संयोगीपर्याय को ही तो तूने आत्मा नहीं समझ रखा है। मोक्षप्राप्ति का पुरुषार्थ प्रारम्भ करने के पहले आत्मा और बन्ध को समझना आवश्यक है। कुन्दकुन्दस्वामी कहते हैं
जीवो बंधो य तहा छिज्जति सलक्खणेहिं णियएहिं। बंधो छएदव्वो शुद्धो अप्पा य घेतव्वो।।२९५।।
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