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समयसार
सम्यग्दृष्टि जीव बन्ध के इस वास्तविक कारण को समझता है। इसलिये वह उसे दूर कर निर्बन्ध अवस्था को प्राप्त होता है। परन्तु मिथ्यादृष्टि जीव इस वास्तविक कारण को नहीं समझ पाता, इसलिये करोड़ों वर्ष की तपस्या के द्वारा भी वह निर्बन्ध अवस्था प्राप्त नहीं कर पाता। मिथ्यादृष्टि जीव धर्म का आचरण-तपश्चरण आदि करता भी है परन्तु 'धम्म भोगणिमित्तं णदु कम्मक्खयणिमित्तं' धर्म को भोग के निमित्त करता है, कर्मक्षय के निमित्त नहीं।
अरे भाई! सच्चा कल्याण यदि करना चाहता है तो इस अध्यवसान भावों को समझ और उन्हें दूर करने का पुरुषार्थ कर।
कितने ही जीव निमित्त की मान्यता से बचने के लिए ऐसा व्याख्यान करते हैं कि आत्मा में रागादिक अध्यवसान भाव स्वत: होते हैं, उसमें द्रव्यकर्म की उदयावस्था निमित्त नहीं है। ऐसे जीवों को बन्धाधिकार की निम्न गाथाओं का मनन कर अपनी श्रद्धा ठीक करनी चाहिये
जह फलिहमणी सुद्धो ण सयं परिणमइ रायमाईहिं । रंगिज्जदि अण्णेहिं दु सो रत्तादीहिं दव्वेहिं ।। २७८।। एवं णाणी सुद्धो ण सयं परिणमइ रायमाईहिं। राइज्जदि अण्णेहिं दु सो रागादीहिं दोसेहि ।। २७९।।
जैसे स्फटिकमणि आप शुद्ध है वह स्वयं लालाई आदि रंगरूप परिणमन नहीं करता, परन्तु लाल आदि द्रव्यों से ललाई आदि रङ्गरूप परिणमन करता है इसी प्रकार ज्ञानी जीव आप शुद्ध है वह स्वयं राग आदि विभाव भावरूप परिणमन नहीं करता है, किन्तु अन्य राग आदि दोषों-द्रव्यकर्मोदय जनित विकारों से रागादि विभाव भावरूप परिणमन करता है।
श्रीअमृतचन्द्रस्वामी ने भी निम्न कलशा के द्वारा उक्त भाव का निरूपण किया है.
न जातु रागादिनिमिमित्तभावमात्मात्मना याति यथार्ककान्तः। तस्मिन्निमित्तं परसंग एव वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत्।।१७५।।
जिस प्रकार अर्ककान्त-स्फटिकमणि स्वयं ललाई आदि को प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार आत्मा स्वयं रागादि के निमित्तभाव को प्राप्त नहीं होता। उसमें निमित्त परद्रव्य का संयोग ही है। वस्तु का स्वभाव ही यह है, किसी का किया नहीं है।
ज्ञानी जीव स्वभाव और विभाव के अन्तर को समझता है। वह स्वभाव को
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