________________
Ratnakarandaka-śrāvakācāra
विषयविषतोऽनुपेक्षानुस्मृतिरतिलौल्यमतितृषानुभवौ । भोगोपभोगपरिमाव्यतिक्रमाः पञ्च कथ्यन्ते ॥ ९० ॥
सामान्यार्थ - विषय - रूपी विष से उपेक्षा नहीं होना अर्थात् उसमें आदर रखना, भोगे हुए विषयों का बार-बार स्मरण करना, वर्तमान विषयों में अधिक लम्पटता रखना, आगामी विषयों की अधिक तृष्णा रखना, और वर्तमान विषयों का अत्यन्त आसक्ति से अनुभव करना (केवल वेदना के प्रतिकार की भावना से नहीं), ये पाँच भोगोपभोगपरिमाणव्रत के अतिचार कहे जाते हैं।
Not having a sense of withdrawal (or indifference) for the venom of sensual pleasures, thinking over and over again of sensual pleasures enjoyed in the past, excessive preoccupation with on hand sensual pleasures, intense craving for sensual pleasures, and enjoying sensual pleasures obsessively, are the five transgressions of the vow of limiting consumable and nonconsumable possessions (bhogopabhogaparimaṇavrata).
142
Thus ends the fourth part called Right Conduct - Subsidiary Vows (gunavrata) of the Ratnakaraṇḍaka-śrāvakācāra, composed by Acarya Samantabhadra Svāmi.
......