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Ratnakarandaka-śrāvakācāra
एकान्ते सामयिकं निर्व्याक्षेपे वनेषु वास्तुषु च । चैत्यालयेषु वापि च परिचेतव्यं प्रसन्नधिया ॥ ९९॥
सामान्यार्थ – वह सामयिक निर्मल बुद्धि के धारक श्रावक के द्वारा उपद्रव रहित एकान्त स्थान में, वन में, घर या धर्मशाला में, चैत्यालय (मन्दिर) में और पर्वत की गुफा आदि में बढ़ाना चाहिये।
The householder should strengthen, with a cheerful mind, his vow of periodic concentration (samayika) by choosing for it a venue which is without disturbance - like an uninhabited place, a forest, a house or a religious dwelling, a temple, or a mountainous cave.
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