Book Title: Ratnakarandaka Shravakachar
Author(s): Vijay K Jain
Publisher: Vikalp Printers

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Page 269
________________ Verse 150 सुखयतु सुखभूमिः कामिनं कामिनीव, सुतमिव जननी मां शुद्धशीला भुनक्तु । कुलमिव गुणभूषा कन्यका सम्पुनीताज्जिनपतिपदपद्मप्रेक्षिणी दृष्टिलक्ष्मीः ॥१५० ॥ सामान्यार्थ - जिनेन्द्र भगवान् के चरण-कमलों का दर्शन करने वाली सम्यग्दर्शनरूपी लक्ष्मी सुख की भूमि होती हुई मुझे उस तरह सुखी करे जिस तरह कि कामिनी (स्त्री) कामी पुरुष को सुखी करती है। वह शुद्धशीला - निरतिचार तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत से युक्त - लक्ष्मी मुझे उस तरह रक्षित करे जिस तरह कि निर्दोष शीलव्रतों का पालन करने वाली माता पुत्र को रक्षित करती है। और वह गुणभूषा लक्ष्मी मुझे उस तरह पवित्र करे जिस तरह कि शील-सौन्दर्य आदि गुणों से सुशोभित कन्या कुल को पवित्र करती है। May Lakşmi of right faith, the beholder of the Lotus Feet of Lord Jina, herself the land of happiness, make me happy as a sensual woman satisfies a lascivious man, protect me as a noble mother protects her child, and purify me as a girl adorned with the ornament of virtue purifies her family. Thus ends the seventh part called Eleven Stages (pratimā) of the Householder's Conduct of the Ratnakarandaka-śrāvakācāra, composed by Acārya Samantabhadra Svāmi. ॥ श्रीसमन्तभद्राचार्यविरचितं रत्नकरण्डकश्रावकाचारं समाप्तम् ॥ O Ascetic Supreme Ācārya Samantabhadra ! Victory (Vijay) makes obeisance to the most worshipful duo of your feet. 243

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