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Ratnakarandaka-śrāvakācāra
येन स्वयं वीतकलङ्कविद्यादृष्टिक्रियारत्नकरण्डभावं । नीतस्तमायाति पतीच्छयेव सर्वार्थसिद्धिस्त्रिषु विष्टपेषु ॥१४९ ॥
सामान्यार्थ - जिस भव्य ने अपनी आत्मा को सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और समयक्चारित्र रूप रत्नों के करण्डभाव (पिटारापन) को प्राप्त कराया है उसे तीनों लोकों में पति की इच्छा से ही मानो चारों पुरुषार्थों की सिद्धि प्राप्त होती
The worthy (bhavya) individual who has turned his soul into a jewel-casket of right faith, right knowledge and right conduct accomplishes, like a woman eager to choose and join her husband from among the assembled suitors, all the four objects - righteousness (dharma), wealth (artha), enjoyment (kāma), and liberation (moksa)-of human effort.
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