Book Title: Ratnakarandaka Shravakachar
Author(s): Vijay K Jain
Publisher: Vikalp Printers

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Page 201
________________ नवपुण्यैः प्रतिपत्तिः सप्तगुणसमाहितेन शुद्धेन । अपसूनारम्भाणामार्याणामिष्यते दानम् ॥ ११३ ॥ Verse 113 सामान्यार्थ - सात गुणों से सहित और कौलिक (कुल सम्बन्धी), आचारिक तथा शरीरिक शुद्धि से सहित दाता के द्वारा पञ्च - सूना (गृहसम्बन्धी कार्य ) और खेती आदि के आरम्भ से रहित, समयग्दर्शनादि गुणों से सहित मुनियों का नवधाभक्ति पूर्वक जो आहारादि के द्वारा गौरव किया जाता है वह दान माना जाता है। Giving of food (āhāra), by a donor equipped with the seven attributes (as mentioned in the Scripture) and purity of lineage, conduct and body, to holy ascetics, endowed with qualities like right faith and free from all household activities and occupations, observing the ninefold correct manner of offering a gift, is considered to be a charity (dāna) under the vow of serving the noble ones (vaiyāvrtya). EXPLANATORY NOTE ācārya Amrtacandra's Purusārthasiddhyupāya: ऐहिकफलानपेक्षा क्षान्तिर्निष्कपटतानसूयत्वम् । अविषादित्वमुदित्वे निरहङ्कारित्वमिति हि दातृगुणाः ॥ १६९ ॥ The qualities required of the donor are: no desire for worldly benefits, composure, earnestness, absence of the feelings of envy, despondency, glee, and pride. संग्रहमुच्चस्थानं पादोदकमर्चनं प्रणामं च । वाक्कायमनःशुद्धिरेषणशुद्धिश्च विधिमाहुः ॥ १६८ ॥ And the right manner for giving of gift consists in: respectful ..... 175

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