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Verse 116
क्षितिगतमिव वटबीजं पात्रगतं दानमल्पमपि काले। फलति च्छायाविभवं बहुफलमिष्टं शरीरभृताम् ॥ ११६॥
सामान्यार्थ - उचित समय में योग्य पात्र के लिये दिया हुआ थोड़ा भी दान उत्तम पृथ्वी में पड़े हुए वटवृक्ष के बीज के समान प्राणियों के लिये माहात्म्य ओर वैभव से युक्त, पक्ष में छाया की प्रचुरता से सहित, बहुत भारी अभिलषित फल को फलता है – देता है।
Just as a seed of Indian fig-tree (vata-Urksa), lying in good soil, produces, in fullness of time, a magnificent and lofty tree that provides to living beings soothing shadow and fruits, the act of giving, at a proper time, even a small charity (dāna) to a worthy recipient (pātra) yields desirable results of great magnitude.
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