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दो शब्द जैन दर्शन में षट् द्रव्य कहे गये हैं -- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, काल और जीवास्तिकाय । द्रव्य का अर्थ है 'सत्' वस्तु अर्थात वह वस्तु जिसमें अवस्थान्तर भले ही हो पर जो मूलतः कभी विनाश को प्राप्त नहीं होता। द्रव्यों में प्रथम पांच अजीव है। उनमें चैतन्य नहीं होता। जीवास्तिकाय चैतन्य द्रव्य है। पांच अचेतन द्रव्यों में पुद्गलास्तिकाय रूपी है। उसके वर्ण, गध, रस और स्पर्श हाते हैं, अतः वह रूपी है इन्द्रिय ग्राह्य है।
पुद्गलास्तिकाय की रचना अन्य द्रव्यों से भिन्न है। पुद्गल का सूक्ष्म से सूक्ष्म टुकड़ा जिसका खंड नहीं हो सकता, जो अन्तिम अविभाज्य होता है परमाणु कहलाता है। परमाणुओं में परस्पर मिलने व बिछुड़ने का सामर्थ्य होता है। इस गलनमिलन गुण या स्वभाव के कारण परमाणु मिलकर स्कंध रूप हो जाते हैं, और स्कंध से बिछुड़कर पुन: परमाणु रूप हो जाते हैं ।
_पदार्थ विज्ञान की दृष्टि से पुद्गल का अध्ययन करना जितना महत्वपूर्ण है उतना ही आध्यात्मिक दृष्टि से उसका ज्ञान प्राप्त करना परमावश्यक हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से पुद्गल अनन्त शक्ति सम्पन्न है। आध्यात्मिक दृष्टि से उसकी असलियत पौदगलिक बंधन का कारण है जो परम्परा से भव-भ्रमण का कारण होता है।
अस्तु समग्रलोक अजीव, जड़, अचेतन या पुद्गल नाम का जो तत्व है उससे भरा पड़ा है। जो हम अपनी आंखों से देखते हैं वह सब पुदगल है। जीव और पुद्गल का सम्बन्ध अनादिकाल से है। जिस दिन आत्मा का पुद्गल से सम्बन्ध छट जाता है आत्मा-परमात्मा-सिद्ध बन जाती है ।
प्रस्तुत पुद्गल कोष की पाडुलिपी आज से ३० साल पहले स्व० मोहनलालजी बांठिया व श्री श्रीचन्दजी चौरडिया के गहन अध्ययन से तैयार की गई है। बांठियाजी के निधन के बाद इस शोध कार्य की गति मंद हो गई। विद्वान लेखक श्री श्रीचन्दजी चौरड़िया ने इसे अधूरे कार्य को अकेले ही पूरा करने का बिड़ा उठाया। उनके अथाह परिश्रम का फल है कि हम पुद्गल कोश को प्रकाशित कर सके हैं।
पुद्गल कोश में मनीषी लेखक ने पुद्गल की विभिन्न अवस्थाओं और पुद्गल और जीव के सम्बन्ध का बड़े सुन्दर ढंग से विनेचन किया है। ये पुदगल स्वयं कम नहीं है किन्तु उनमें कर्म होने की योग्यता है। वे कर्मरूप पर्याय विशेष में प्रसंगानुसार परिणत हो जाते हैं। प्राणी के अन्तर में जब भी रागद्वेषात्मक भाव
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