Book Title: Prakrit Vyakarana
Author(s): Hemchandracharya, K V Apte
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 15
________________ ( १० ) मतानुसार पैशाचीकी ही हैं । चूलिका पैशाचीको पैशाचीका उपभेद समझने में कोई आपत्ति नहीं है । इसके उदाहरण हेमचन्द्र के कुमारपालचरित और काव्यानुशासन इनमें दिखाई देते हैं । अपभ्रंश अपभ्रंश शब्दके भिन्न स्पष्टीकरण पूर्वग्रन्थों में मिलते हैं । दंडिनके मतानुसार, aror में आमीर इत्यादिको भाषा और शास्त्र में संस्कृतेतरभाषा यानी अपभ्रंश । रुद्रट कहता है : - देशविशेषादपभ्रंशः । इस वाक्यकी टोकामें प्राकृतमेवापभ्रंश ः ' ऐसा नमिसाधु कहता है ! तो उस उस देश में शुद्ध भाषा यानी अपभ्रंश ऐसा वाग्भट का वचन" है | माहाराष्ट्री इत्यादि प्राकृत भाषाओंकी अन्तिम अवस्था यानी अपभ्रंश ऐसा कहा जा सकता है । अपभ्रंश के अनेक उपप्रकार मार्कंडेय इत्यादि लोग कहते हैं । हेमचन्द्र मात्र अपभ्रंशका कोई प्रकार नहीं देता है । विक्रमोर्वशीय नाटक और प्राकृत व्याकरण इनमें अपभ्रंशके उदाहरण हैं । इसके अलावा भविस्समन्त कहा, करकण्डचरिउ इत्यादि अनेक अपभ्रंश भाषा के ग्रन्थ आज उपलब्ध हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना हिन्दी अनुवाद - टिप्पणी सहित हेमचन्द्रका प्राकृत व्याकरण यहाँ प्रस्तुत करते समय आगे दी हुई पद्धति स्वीकृत की गई है: 9 (१) पहले हेमचन्द्रका मूल संस्कृत सूत्र और उसका अनुक्रमांक अनन्तर उस सूत्रके ऊपरकी संस्कृतवृत्ति, और बादमें हिन्दी अनुवाद दिया है । एका अक्षर के ऊपरका यह चिह्न स्वरका लघु/ ह्रस्व उच्चारण दिखाता है। अक्षर के ऊपरका यह चिह्न सानुनासिक उच्चारण दिखाता है । वृत्ति में पद्यात्मक उदाहरण होनेपर ' उन्हें उस उस सूत्र के नीचे एक (१), दो (२) इत्यादि अनुक्रमांक दिये हैं । (२) वृत्ति में सूत्रका अर्थं आता है; इसलिए सूत्रका स्वतन्त्र भाषान्तर न देते हुए, केवल वृत्ति का ही भाषान्तर दिया है। मूल में से पारिभाषिक / तान्त्रिक शब्द अनुवार में जैसे के तैसे ही रखे हैं; उनका स्पष्टीकरण अन्तमें टिप्पणियों में दिया है : मूल में होनेवाले परन्तु अर्थ समझने के लिए आवश्यक होनेवाले शब्द कोष्ठकों में रखे हैं | अनुवादक में भी आवश्यक स्थानों पर कुछ शब्दोंका स्पष्टीकरण उन शब्दोंके आगे कोष्ठ में इस समीकरण चिह्न से दिया है । अनेक बार हेमचन्द्र सूत्रोंमें दिए हुए शब्द वृत्ति पुन: नहीं देता है; ऐसे शब्द भाषान्तरमें लेकर कोष्ठक में रखे हैं । कभी-कभी For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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