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6.
अहिंसा, संयम और तप धर्म (है)। (इससे ही) सर्वोच्च कल्याण (होता है)। जिसका मन सदा धर्म में (लीन है), उस (मनुष्य) को देव भी नमस्कार करते हैं।
7.
जो प्राप्त किए गए मनोहर और प्रिय भोगों को पीठ करता है (तथा) स्व-अधीन भोगों को छोड़ता है, वह ही त्यागी है, इस प्रकार कहा जाता है।
8.
जो-जो रात्रि बीतती है, वह लौटती नहीं है। अधर्म करते हुए (व्यक्ति) की रात्रियाँ व्यर्थ होती हैं।
9.
जो (व्यक्ति) कठिनाई से जीते जानेवाले संग्राम में हजारों के द्वारा हजारों को जीतता है (और) (जो) एक स्व को जीतता है, (इन दोनों में) उसकी यह (स्व पर जीत) परम विजय है।
10.
आत्मा ही सचमुच कठिनाईपूर्वक (वश में किया जानेवाला) (होता है), (तो भी) आत्मा ही वश में किया जाना चाहिए। (कारण कि) वश में किया हुआ आत्मा (ही) इस लोक और परलोक में सुखी होता है।
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थोड़ा-सा ऋण, थोड़ा-सा घाव, थोड़ी-सी अग्नि और थोड़ी-सी कषाय तुम्हारे द्वारा विश्वास किए जाने योग्य नहीं है, क्योंकि थोड़ा-सा भी वह बहुत ही होता है।
12. क्रोध प्रेम को नष्ट करता है, अहंकार विनय का नाशक (होता है),
कपट मित्रों को दूर हटाता है (और) लोभ सब (गुणों का) विनाशक (होता है)।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ
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