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पाठ - 2 समणसुत्तं
1.
खूब अच्छी प्रकार से खोजे जाते हुए भी जैसे केले के पेड़ में कहीं सार नहीं (होता है), वैसे ही इन्द्रिय-विषयों में सुख नहीं (होता है), यद्यपि (वह) (वहाँ) खूब अच्छी तरह से खोजा हुआ (होता है)।
जैसे खाज-रोगवाला खाज को खुजाता हुआ दु:ख को सुख मानता है, वैसे ही मोह (रोग) से पीड़ित मनुष्य इच्छा (से उत्पन्न) दुःख को सुख कहते हैं।
3.
(जब व्यक्ति) कर्म को चुनते हैं, (तो) (वे) स्वाधीन (होते हैं); किन्तु उसके विपाक' में (वे) पराधीन होते हैं; (जैसे) (जब कोई) पेड़ पर चढ़ता है (तो) (वह) स्वाधीन (होता है), (किन्तु) (जब) उससे गिरता है; (तो) वह पराधीन (होता है)।
4.
(कहीं) जीव कर्मों के अधीन (होते हैं), (तो) कहीं कर्म जीव के अधीन (होते हैं); (जैसे) कहीं साहूकार बलवान (होता है), तो कहीं कर्जदार बलवान (होता है)।
वस्तु-जगत से विरक्त मनुष्य दुःखरहित (होता है); संसार के मध्य में विद्यमान भी (वह) दुःख-समूह की इस अविछिन्न धारा से मलिन नहीं किया जाता है, जैसे कि कमलिनी का पत्ता जल से (मलिन नहीं किया जाता है)।
1.
सुख- दुःखरूप कर्म-फल
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ
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