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प्राकृत भाषा प्रबोधिनी काव्य-लक्षणों के उदाहरणों के लिए प्राकृत पद्यों को उद्धृत करना प्राकृत के साहित्यिक सौन्दर्य का परिचायक है।" इस प्रकार वैदिक युग, महावीर युग एवं उसके बाद के विभिन्न कालों में प्राकृत भाषा का स्वरूप क्रमशः स्पष्ट हुआ है और उसका महत्त्व विभिन्न क्षेत्रों में बढ़ा है।
भारतीय भाषाओं के आदिकाल की जन-भाषा से विकसित होकर प्राकृत स्वतंत्र रूप से विकास को प्राप्त हुई। बोलचाल और साहित्य के पद पर वह समान रूप से प्रतिष्ठित रही है। उसने देश की चिन्तनधारा, सदाचार और काव्य-जगत् को अनुप्राणित किया है, अतः प्राकृत भारतीय संस्कृति की संवाहक भाषा है। प्राकृत ने अपने को किसी घेरे में कैद नहीं किया। इसके पास जो था, उसे वह जन-जन तक बिखेरती रही और जनसमुदाय में जो कुछ था, उसे वह बिना हिचक ग्रहण करती रही। इस तरह प्राकृत भाषा सर्वग्राह्य और सार्वभौमिक भाषा रही है। प्राकृत के स्वरूप की ये कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं, जो प्राचीन समय से आज तक लोक-मानस को प्रभावित करती रही हैं। वैदिक भाषा और प्राकृत
प्राकृत भाषा के स्वरूप को प्रमुख रूप से दो अवस्थाओं में देखा जा सकता है। वैदिक युग से महावीर युग के पूर्व तक के समय में जन-भाषा के रूप में जो प्राकृत प्रचलित थी, उसे प्रथमस्तरीय प्राकृत कहा जा सकता है। महावीर युग से ईसा की द्वितीय शताब्दी तक आगम-ग्रन्थों, शिलालेखों एवं नाटकों आदि में प्रयुक्त भाषा को द्वितीयस्तरीय प्राकृत नाम दिया जा सकता है और तीसरी शताब्दी के बाद ईसा की छठी-सातवीं शताब्दी तक प्रचलित एवं साहित्य में प्रयुक्त प्राकृत को तृतीयस्तरीय प्राकृत कह सकते हैं। इन दोनों स्तरों की प्राकृत के स्वरूप को संक्षेप में समझने के लिए पहले वैदिक भाषा और प्राकृत के सम्बन्ध को समझना होगा। प्राकृत की मूल भाषा वैदिक युग के समकालीन प्रचलित एक जन-भाषा थी। उसी से वैदिक एवं प्राकृत भाषा का विकास हुआ। अतः उस मूल लोकभाषा में जो विशेषताएँ थीं, वे दाय के रूप में वैदिक भाषा और प्राकृत को समान रूप से मिली हैं। प्रथमस्तरीय प्राकृत के स्वरूप को जानने के लिए वैदिक भाषा में प्राकृत के जो तत्त्व रहे हैं, उनका गहराई से अध्ययन किया जाना आवश्यक है।
यद्यपि प्रथमस्तरीय प्राकृत का साहित्य अनुपलब्ध हैं, तथापि महावीर युगीन द्वितीयस्तरीय प्राकृत की प्रवृत्तियों के प्रमाण वैदिक भाषा (छान्दस्) के साहित्य में प्राप्त होते हैं। डॉ. पी.डी. गुणे की कृति तुलनात्मक भाषाविज्ञान, पृ. 153 के अनुसार-“प्राकृतों का अस्तित्व निश्चित रूप से वैदिक बोलियों के साथ-साथ विद्यमान था।" वस्तुतः ऋग्वेद की भाषा में भी कुछ सीमा तक हमें प्राकृतीकरण देखने को मिलता है। आधुनिक भाषाविदों