Book Title: Prakrit Bhasha Prabodhini
Author(s): Sangitpragnashreeji Samni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 40
________________ 31 मोक्ष पर श्रद्धा न करने वाले का कोई (शास्त्र) पाठ लाभ नहीं करता । (सप्तमी प्राकृत भाषा प्रबोधिनी के स्थान पर द्वितीया) 4. कभी-कभी प्रथमा के स्थान पर द्वितीया विभक्ति प्रयुक्त होती हैचवीसं पि जिणवरा - चौबीस ही जिनवर 5. कभी-कभी सप्तमी के स्थान पर द्वितीया विभक्ति प्रयुक्त होती हैविज्जुज्जोयं भरइ रत्तिं- रात में विद्युत्-उद्योत को स्मरण करती है । 6. द्विकर्मक क्रियाओं के योग में मुख्य कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है तथा गौण कर्म में करण, अपादान, अधिकरण, सम्प्रदान, संबंध आदि विभक्तियों के होने पर भी द्वितीया विभक्ति होती है । यथा माणवअं पहं पुच्छइ - लड़के से रास्ता पूछता है। 3. करण कारक तृतीया - के द्वारा, साथ, से क्रिया - फल की निष्पत्ति में सबसे अधिक निकट सम्पर्क रखने वाले साधन को करण कहते हैं। कार्य की सिद्धि में कई सहायक साधन होते हैं। अधिक सहायक साधन में तृतीया विभक्ति का प्रयोग होगा। प्राचीन साहित्य में विभिन्न अर्थों में तृतीया विभक्ति का प्रयोग देखने को मिलता है, यथा 1. प्रकृति अर्थ में 2. अंग विकार में 3. हेतु अर्थ में 4. सह अर्थ में - - - सहावेण सुंदरी लोओ सो त्तेण हीणो अत्यि पुणेण दंसणं हव सा पिउणा सह गच्छइ अन्य उदाहरण वाक्य सीसो साहुणा सह पढइ सा माआए सह गच्छइ पुरिसो जुवईए सह वसइ णयरेण सामिद्धी हवइ सत्येण पंडिओ होइ - - - - स्वभाव से सुंदर लोक । वह नेत्र से हीन है । से दर्शन होता है । पुण्य वह पिता के साथ जाता है । शिष्य साधु के साथ पढ़ता है । वह माता के साथ जाती है 1 आदमी युवती के साथ रहता है । नगर से समृद्धि होती है । ग्रन्थ से पंडित होता है ।

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