Book Title: Prakrit Bhasha Prabodhini
Author(s): Sangitpragnashreeji Samni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 13
________________ 4 प्राकृत भाषा प्रबोधिनी जाती है तब वह काव्य की भाषा बनने लगती है । प्राकृत भाषा को यह सौभाग्य दो तरह से प्राप्त है। प्राकृत में जो आगम ग्रंथ, व्याख्या - साहित्य, कथा एवं चरितग्रंथ आदि लिखे गये, उनमें काव्यात्मक सौन्दर्य और मधुर रसात्मकता का समावेश है । काव्य की प्रायः सभी विधाओं - महाकाव्य, खण्डकाव्य, मुक्तककाव्य आदि को प्राकृत भाषा ने समृद्ध किया है। इस साहित्य ने प्राकृत भाषा को लम्बे समय तक प्रतिष्ठित रखा है। अशोक के शिलालेखों के लेखन - काल (ई.पू. तीसरी शताब्दी) से आज तक इन अपने 2300 वर्षों के जीवन काल में प्राकृत भाषा ने अपने काव्यात्मक सौन्दर्य को निरन्तर बनाये रखा है। प्राकृत भाषा की इसी मधुरता और काव्यात्मकता का प्रभाव है कि भारतीय काव्यशास्त्रियों ने काव्य के अपने लक्षण-ग्रन्थों में प्राकृत की सैकड़ों गाथाओं के उद्धरण दिये हैं। अनेक सुभाषितों को उन्होंने इस बहाने सुरक्षित किया है। ध्वन्यालोक की टीका में अभिनवगुप्त ने प्राकृत की जो गाथाएँ दी हैं, उनमें से एक उक्ति द्रष्टव्य हैचन्दमऊएहिं णिसा, णलिनी कमलेहिं कुसुमगुच्छेहिं लआ । हंसेहिं सरहसोहा, कव्वकहा सज्जणेहिं करइ गरुइ ।। (2.50 टीका) अर्थात् रात्रि चंद्रमा की किरणों से, नलिनी कमलों से, लता पुष्प के गुच्छों से, शरद हंसों से और काव्यकथा सज्जनों से अत्यन्त शोभा को प्राप्त होती है । अलंकारों के प्रयोग में भी प्राकृत गाथाएँ बेजोड़ हैं । प्रायः सभी अलंकारों के उदाहरण प्राकृत काव्य में प्राप्त हैं । अलंकारशास्त्र के पंडितों ने अपने ग्रंथों में प्राकृत गाथाओं को उनके अर्थ-वैचित्र्य के कारण भी स्थान दिया है। एक-एक शब्द के कई-कई अर्थ प्रस्तुत करने की क्षमता प्राकृत भाषा में विद्यमान है । गाथासप्तशती में ऐसी कई गाथाएँ हैं, जो शृंगार और सामान्य दोनों अर्थों को व्यक्त करती हैं । अर्थान्तरन्यास प्राकृत काव्य का प्रिय अलंकार है । सेतुबन्ध का एक उदाहरण द्रष्टव्य है ते विरला सप्पुरिसा, जे अभणन्ता घडेन्ति कज्जालावे । थोअ च्चिअ ते वि दुमा, जे अमुणिअकुसुमणिग्गमा देन्ति फलं । । (सेतुबन्ध 3. 9 ) अर्थात् ऐसे सत्पुरुष संसार में कम होते हैं, जो बिना कहे ही कार्य-योजना का अनुष्ठान करते हैं । ऐसे वृक्ष भी थोड़े होते हैं, जो पुष्पोद्गम को बिना प्रकट किये ही फल प्रदान करते हैं । 1 " इस प्रकार काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते समय आनन्दवर्धन, भोजराज, मम्मट, विश्वनाथ, पंडितराज जगन्नाथ आदि आलंकारिकों द्वारा

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