Book Title: Prakrit Bhasha Prabodhini
Author(s): Sangitpragnashreeji Samni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 25
________________ 16 प्राकृत भाषा प्रबोधिनी इनका समय 16वीं शताब्दी है। डॉ. पिशल का कहना है कि महाराष्ट्री, जैनमहाराष्ट्री, अर्धमागधी और जैनशौरसेनी के अतिरिक्त अन्य प्राकृत बोलियों के नियमों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए मार्कण्डेय कवीन्द्र का 'प्राकृतसर्वस्व' बहुत मूल्यवान है। 12. जैनसिद्धान्तकौमुदी यह मुनि रत्नचंदजी की रचना है। इनका समय 17वीं शताब्दी है। 13. पिशेल का प्राकृत व्याकरण इसके रचनाकार डॉ. आर. पिशेल हैं। इनका समय 19वीं शताब्दी है। आधुनिक भाषा-शास्त्रीय अध्ययन की दृष्टि से यह ब्याकरण-ग्रंथ सर्वाधिक उपयोगी है। इसके अतिरिक्त क्रमदीश्वर का 'संक्षिप्तसार', लंकेश्वर का 'प्राकृत कामधेनु', श्रुतसागर का 'औदार्यचिन्तामणि', शुभचन्द्र का 'चिन्तामणिव्याकरण', रघुनाथशर्यन का 'प्राकृतानन्द', अज्ञातकर्तृक 'प्राकृतपद्यव्याकरण' आदि व्याकरण ग्रंथ भी लिखे गये इन उल्लिखित प्राकृत व्याकरण ग्रंथों के अतिरिक्त कुछ अन्य प्राकृत व्याकरणों के भी ग्रंथों में उल्लेख मिलते हैं। इस प्रकार प्राकृत के अ... याकरण ग्रंथ हैं। प्राकृत के सामान्य नियम अथ प्राकृतम् 1/1 अथ शब्द यहां मंगल और अधिकार अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अथ शब्द मंगलसूचक होने के कारण किसी रचना के आरम्भ में प्रयुक्त होता है। अधिकार अर्थात् एक के बाद एक सूत्रों में पीछे की अनुवृत्ति ग्रहण करना। आचार्य हेमचन्द्र ने प्राकृत की प्रकृति संस्कृत को माना है। उनके अनुसार संस्कृत में होने वाला (तत्र भव) अथवा संस्कृत से आया हुआ (तत आगत) प्राकृत शब्दानुशासन है। प्राकृत में प्रकृति, प्रत्यय, लिंग, कारक, समास और संज्ञा आदि को संस्कृत के समान जानना चाहिए। प्रकृति - नाम, धातु, अव्यय, उपसर्ग आदि को प्रकृति कहते हैं। प्रत्यय - संज्ञाओं के साथ प्रयुक्त होने वाले सि, औ आदि तथा धातुओं के साथ प्रयुक्त होने वाले तिप्, तस् आदि को प्रत्यय कहते हैं। लिंग - पुल्लिंग, स्त्रीलिंग, नपुंसकलिंग को लिंग कहते हैं। कारक - क्रिया के निमित्त कर्ता, कर्म करण आदि को कारक कहते हैं।

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