Book Title: Prakrit Bhasha Prabodhini
Author(s): Sangitpragnashreeji Samni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 21
________________ 12 प्राकृत भाषा प्रबोधिनी अपभ्रंश भाषा ने दूर करने का प्रयत्न किया। कारकों, विभक्तियों, प्रत्ययों के प्रयोग में अपभ्रंश निरन्तर प्राकृत से सरल होती गयी है। ___ अपभ्रंश, प्राकृत और हिन्दी भाषा को परस्पर जोड़ने वाली कड़ी है। वह आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं (राजस्थानी, गुजराती, मराठी आदि) की पूर्ववर्ती अवस्था है। अपभ्रंश भाषा में छठी शताब्दी से 12वीं शताब्दी तक पर्याप्त साहित्य लिखा गया महाकवि स्वयंभू को अपभ्रंश का आदिकवि कहा जा सकता है। इसके बाद महाकवि रइधू तक कई महाकवियों ने इस भाषा को समृद्ध किया है। अपभ्रंश भाषा प्राकृत भाषा के विकास की तीसरी अवस्था मानी जाती है। ईसा की छठी शताब्दी से लगभग बारहवीं शताब्दी तक अपभ्रंश का उत्कर्ष युग रहा। इस बीच प्राकृत भाषाओं में भी काव्य लिखे जाते रहे, किन्तु जनबोली के रूप में अपभ्रंश प्रयुक्त होती रही। इस तरह एक ही समय में समानान्तर रूप से प्रचलित इन दोनों भाषाओं में कई समानताएं एकत्र होती रहीं। भाषा के सरलीकरण की प्रवृत्ति को अपभ्रंश ने प्राकृत से ग्रहण किया और कई शब्द तथा व्याकरणात्मक विशेषताएँ भी उसने ग्रहण की। इन सब प्रवृत्तियों को अपभ्रंश ने अपनी अंतिम अवस्था में क्षेत्रीय भाषाओं को सौंप दिया। इस तरह अपभ्रंश भाषा का महत्त्व प्राकृत और आधुनिक भारतीय भाषाओं के आपसी सम्बन्ध को जानने के लिए आवश्यक है। * प्राकृत स्वयं शिक्षक (भाग-1), प्रो. प्रेम सुमन जैन, प्रकाशकः राजस्थान प्राकृतभारती अकादमी, जयपुर से साभार उद्धृत

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