Book Title: Prakrit Bhasha Prabodhini
Author(s): Sangitpragnashreeji Samni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 17
________________ प्राकृत भाषा प्रबोधिनी उपलब्ध है। दिगम्बर परम्परा के आगम शौरसेनी भाषा में उपलब्ध है। ___प्राचीन आचार्यों ने मगध प्रान्त के अर्थांश भाग में बोली जाने वाली भाषा को अर्धमागधी कहा है ("मगहद्ध विसयभासानिबद्धं अद्धमागही"- निशीथचूणि)। कुछ विद्वान् इस भाषा को अर्धमागधी इसलिए कहते हैं कि इसमें आधे लक्षण मागधी प्राकृत के और आधे अन्य प्राकृत के पाये जाते हैं (प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास-नेमिचंद्र शास्त्री, पृ. 35)। वस्तुत पश्चिम में शूरसेन (मथुरा) और पूर्व में मगध के बीच इस भाषा का व्यवहार होता रहा है। अतः इसे अर्धमागधी कहा गया होगा। इस भाषा का समय की दृष्टि से ई.पू. चौथी शताब्दी तय किया जाता है। ____(iii) शौरसेनी-शूरसेन (ब्रजमण्डल, मथुरा के आसपास) प्रदेश में प्रयुक्त होने वाली जनभाषा को शौरसेनी प्राकृत के नाम से जाना गया है। अशोक के शिलालेखों में भी इसका प्रयोग हुआ है। अतः शौरसेनी प्राकृत भी महावीर युग में प्रचलित रही होगी, यद्यपि उस समय का कोई लिखित शौरसेनी ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं है, किन्तु उसी परम्परा में प्राचीन आचार्यों ने षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों की रचना शौरसेनी प्राकृत में की है और आगे भी कई शताब्दियों तक इस भाषा में ग्रन्थ लिखे जाते रहे हैं। अशोक के अभिलेखों में शौरसेनी के प्राचीन रूप प्राप्त होते हैं। नाटकों में पात्र शौरसेनी भाषा का प्रयोग करते हैं, अतः प्रयोग की दृष्टि से अर्धमागधी से शौरसेनी प्राकृत व्यापक मानी गयी है। इसका प्रचार मध्यदेश में अधिक था। 2. शिलालेखी प्राकृत __शिलालेखी प्राकृत के प्राचीनतम रूप अशोक के शिलालेखों में प्राप्त होते हैं। ये शिलालेख ई.पू. 3 के लगभग देश के विभिन्न भागों में अशोक ने खुदवाये थे। इससे यह स्पष्ट है कि जन-समुदाय में प्राकृत भाषा बहु-प्रचलित थी और राजकाज में भी उसका प्रयोग होता था। अशोक के शिलालेख प्राकृत भाषा की दृष्टि से तो महत्त्वपूर्ण हैं ही, साथ ही वे तत्कालीन संस्कृति के जीते-जागते प्रमाण भी हैं। अशोक ने छोटे-छोटे वाक्यों में कई जीवन-मूल्य जनता तक पहुँचाये हैं। वह कहता हैप्राणानां साधु अनारम्भो, अपव्ययता अपभाण्डता साधु। (तृतीय शिलालेख) (प्राणियों के लिए की गयी अहिंसा अच्छी है, थोड़ा खर्च और थोड़ा संग्रह अच्छा है।) सव पासंडा बहुसुता च असु, कल्याणागमा च असु। (द्वादश शिलालेख)

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