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वेता न रहने पाती, भोर छपाने मे भी इतनी प्रशुद्धियां न रहती । प्रस्तु जैसी कुछ भी है यह पुस्तक अब पाठकों के सामने उपस्थित है और अपने उस उद्देश्य को पूरा करने में बहुत कुछ समर्थ है जिसे लेकर वह प्रस्तुत की गई है । जिस पुस्तक के पीछे वीरसेवामन्दिर की भारी शक्ति लगी हो और कितना ही अर्थ व्यय हुमा हो उसे इतने वर्षों के बाद पाठक के हाथो जाता हुआ देखकर मेरी प्रसन्नताका होना स्वाभाविक है ।
अन्त में यह जान कर मुझे बडी प्रसन्नता हुई कि डा० बासुदेवशरण जी अग्रवाल और डा० हीरालालजी जैसे प्रमुख विद्वानोंने अपने अपने वक्तव्यो ( प्राथमिक, प्राक्कथन ) मे इस पुस्तक का अभिनन्दन किया है, और इसके लिए में दोनो ही विद्वानो का हृदय से आभारी हूँ ।
प्राशा है समाज की सभी संस्थाएं और साहित्य प्रेमी सज्जन इससे इधर-उधर बिखरे हुए अपने अज्ञात साहित्यका एकत्र परिचय प्राप्त कर उससे यथेष्ट लाभ उठाने में समर्थ हो सकेंगे ।
वीर सेवा मन्दिर
२१ दरियागज, दिल्ली
ज्येष्ठ वदि ३, स २०१५
HIRAV
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जुगलकिशोर मुख्तार