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एशन षडशीतिनामा चतुर्थ कर्मग्रंथ. ४ श्रविरति, त्रीजो कषाय, त्रण बंध हेतु प्रत्ययिकी, ए पांशह प्रकृति बंधाय, परंतु ए त्रण बंधहेतु विना केवल एकज योग बंधहेतुयें करीन बंधाय.
थाहारकशरीर, थाहारकअंगोपांग, ए बे प्रकृति, निरवद्य योगरूप सराग संयमप्रत्ययें करी बंधाय, तथा जिननाम कर्म तो अरिहंतादिकनी लक्तिरूप सम्यक्त्वकर्तव्य करी बंधाय. परंतु प्रशस्तरागें करी बंधाय, तेथी ए पण परमार्थे कषायप्रत्ययिकी होय, एम सर्व प्रकृति एकसो ने वीश बंधयोग्य , तेना मूल बंधहेतु विचास्या. जीवविजयजीयें तो ए त्रण प्रकृति चार हेतुमाहेला कोश् हेतुयें न बंधाय, मात्र एक सम्यक्त्वगुणें करीनेज बंधाय, एम लख्युं बे. “सम्मत्तगुणनिमित्तं तिछयरं संजमेण थाहारं ” इति वचनात् ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ५६ ॥
॥ हवे चौद गुणगणे उत्तर बंधहेतु कहे जे. ॥ पणपन्न पन्न ति बदि, अचत्त गुणचत्त बचन उगवीसा ॥
सोलस दस नव नव स, त्त देनणों नन अजोगंमि ॥ ५ ॥ अर्थ-मिथ्यात्वगुणगणे पणपन्न के पंचावन बंधहेतु होय तथा सास्वादने पन्न के पच्चास बंधहेतु होय अने मिथें तिथ के तेंतालीश बंधहेतु होय, तथा अविरतियें बहिथचत्त के बेंतालीश बंधहेतु होय, तथा देश विरतिगुणगणे गुणचत्त के जंगणचालीश बंधहेतु होय, अने प्रमत्तें, अप्रमत्तें तथा अपूर्वकरणे, ए त्रण गुणगणे अनुक्रमें बचउपुगवीसा के बबीश, चोवीश श्रने बावीश, बंधहेतु जाणवा. अने अनिवृत्तिबादरें सोलस के सोल बंधहेतु जाणवा. सूक्ष्मसंपरायें दस के दश बंधहेतु जाणवा. उपशांतमोहें नव के नव बंधहेतु जाणवा. क्षीणमोहें नव के नव बंधहेतु जाणवा. सयोगी सत्त के सात बंधहेतु जाणवा. अने हेजणोननथजोगंमि के अयोगीगुणगणे बंधना अनावमाटें बंध हेतु पण नथी. ॥ ७ ॥
पणपन्न मिबि दारग, उगूण सासाणि पन्न मिडविणा ॥ मी
स जग कम्म अण विणु, तिचत्त मीसे अदब चत्ता ॥ ५ ॥ अर्थ-मिलि के मिथ्यात्वगुणगणे उचे सर्व जीवनी अपेदायें आहारगडुगूण के० थाहारकहिके हीन पणपन्न के पंचावन कर्मबंधना हेतु होय. जेनणी तेने विशिष्ट चारित्र नथी तेथी थाहारक लब्धि न होय, माटें श्राहारक शरीर अने श्राहारकमिश्र, ए बे योग न होय. शेष मिथ्यात्व पांच, अविरति बार अने कषाय पञ्चीश तथा योग तेर, एवं पंचावन कर्मबंधना हेतु पामी, अने विशेषादेशे एक जीवप्रत्ये एक समयें जघन्यपदें दश बंध हेतु होय. अने उत्कृष्टा अढार कर्मबंधना हेतु होय.
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