Book Title: Prakarana Ratnakar Part 4
Author(s): Bhimsinh Manek Shravak Mumbai
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 842
________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ G१७ बांधतां आठ जांगा, नरकगति प्रायोग्य अहावीश बांधतां एक नांगो. एवं नव नांगा श्रहावीशने बंधे होय. तथा पर्याप्त बेंजिय, तेंजिय श्रने चौरिंजिय, प्रायोग्य उंगणत्रीश बांधतां प्रत्येके श्राप नांगा होय. तथा पर्याप्ता पंचेंजिय तिर्यंच प्रायोग्य उगणत्रीश बांधता (४६०७ ) नांगा तथा पर्याप्ता पंचेंजिय मनुष्य गति प्रायोग्य उगणत्रीश बांधतां (४६०७) नांगा, सर्व मली उंगणत्रीशने बंधे (ए४०) नांगा थाय. अहीं तीर्थकर सहित देवगति प्रायोग्य जंगणत्रीश प्रकृतिना बंधना नांगा थाठ न पामीयें, केमके सम्यक्त्व विना तीर्थकर नामकर्मनो बंध न होय. तथा पर्याप्त बेंजिय, तेंजिय अने चौरिंजिय प्रायोग्य त्रीश बांधतां प्रत्येके श्राप, श्राप नांगा होय, तथा पंचेंजियतिर्यंच प्रायोग्य त्रीश बांधतां (४६०७), शरवाले त्रीशने बंधे (४६३२) नांगा थाय. एवं उ बंधस्थानकें थश्ने मिथ्यात्व गुणगणे सर्व मली ( १३ए२६) नांगा होय. अहीश्रां श्राहारकछिक सहित देवगति प्रायोग्य त्रीशना बंधनो नांगो एक तथा जिननाम सहित मनुष्यगति प्रायोग्य त्रीशना बंधना नांगा था, एवं नव नांगा न होय. बाकीना नांगा होय. मिथ्यात्वें २१-२४-२५-२६-२७-२०-२५-३०-३१- ए नव उदयस्थानक होय. तिहां आहारकसंयत, वैक्रियसंयत अने केवली, एटला मिथ्यात्वं न होय. माटें ते संबंधी नांगा थहीं न कहेवा. शेष सर्व ४१-११-३५-६००-३१-११एए-११-२१४१९६४-शरवासे (१७७३) नांगा होय, एटले नव उदयस्थानकना नांगा ( १) पूर्व सामान्यादेशे जाव्या बे, ते मध्ये थी केवलीना श्राउ, थाहारकसाधुना सात, अने उद्योत सहित वैक्रियमनुष्यना त्रण नांगा, उंगणत्रीश, त्रीश, अने एकत्रीश, ए त्रण उदयनो एकेको नांगो उद्योत सहित वैक्रियसाधुने तथा देवताने होय. तेमां देवताने उत्तरवैक्रियना नांगा जूदा नथी लेखव्या श्रने साधु तो बहे, सातमे गुणगणे होय, पण मिथ्यात्वं न होय. माटें ए अढार उदय नांगा टाली बाकी (१७७३) उदयस्थानकना नांगा सर्व जीवनी अपेक्षायें होय, ते सर्व पूर्वे करा .तिहाथी जोश्लेवा. हवे मिथ्यात्वे व सत्तास्थानक होय, ते कहे . तिहां बाणुनी सत्ता चारे गतिना मिथ्यात्वी जीवने होय तथा जेवारें कोइएक वेदक सम्यकदृष्टि जीवें पूर्वे नरकायु बांध्यु ले तेमाटें ते अंत समय सम्यक्त्व वमीने नरकें जाय तेने अंतरमुहर्त पर्यंत नेव्याशीनी सत्ता होय तथा अंतरमुहर्त पड़ी ते वलीसम्यक्त्व पामे. अहीं आहारकचतुष्क, तथा जिननाम, ए बेहुनी समकालें नरकमांहे सत्ता न होय,तेजणीत्र्याणुनुं सत्तास्थानक नरक मांहे न होय, तथा अव्याशीनी सत्ता पण चारे गतिना मिथ्यात्वी जीवने होय, तथा ज्याशीनुं सत्तास्थानक, एकेंजियने विषे देवगति प्रायोग्य अथवा नरकगति १०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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