Book Title: Prakarana Ratnakar Part 4
Author(s): Bhimsinh Manek Shravak Mumbai
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 891
________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ.६ श्रादेयनाम, जसकित्ती के यशःकीर्तिनाम, तिबयरं के तीर्थकरनाम, नामस्सहवंतिनवएथा के० ए नानकर्मनी नव प्रकृति होय, तेनां नाम कह्या इति समुच्चयार्थः ॥७॥ ॥ हवे श्रहीं वली ए गुणगणे मतांतरपणुं देखामे बे. ॥ तच्चाणु पुचि सदिआ, तेरस नवसिअिस्स चरमंमि॥ संतं सग मुक्कोसं, जहन्नयं बारस हवंति ॥ ७ ॥ अर्थ- पूर्वोक्त मनुष्यायु अने उच्चैर्गोत्र, ए बे प्रकृतिमध्ये तच्चाणुपुबिसहिया के त्रीजी श्रानुपूर्वी एटले मनुष्यानुपूर्वी, ते मनुष्यानुपूर्वीय सहित पूर्वोक्त बार प्रकृति करीयें, तेवारें तेरसजवसिहिस्सचरमंमि के० तेर प्रकृति नवसिरिया एटले तदन- मोक्षगामी जीव एवा अयोगीने चरम समयें संतंसगमुक्कोसं के उत्कृष्टपणे सत्तायें कर्मप्रकृति होय अने जहन्नयं बारसहवंति के० जघन्यथकी तो तीर्थंकरनामकर्मविना बार प्रकृतिनी सत्ता होय. ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ७ ॥ ॥ ए शा सारु होय ? माटें हवे एनो हेतु कहे .॥ मणुअ ग सदगया, नवखित्त विवाग जिअ विवागाउँ ॥ वेअणि अन्नरुच्चं, चरम समयमि खीयंति ॥ नए ॥ अर्थ- मणुश्रगश्सहगया के० मनुष्यगति साथेंज जेनो उदय , तेने मनुष्यगति सहगत अगीयार प्रकृति कहीये, पण ते केवी बे ? तोके, नव के नवविपाकी तो मनुष्यायु डे, तथा खित्तविवाग के क्षेत्रविपाकी तो मनुष्यानुपूर्वी , तथा बाकीनी नामकर्मनी नव प्रकृति जे पूर्वे कही, ते जिअविवागार्ड के जीव विपाकीनी जाणवी. तथा वेश्रणिश्रवन्नरुच्च के बे वेदनीयमांडेलुं अनेरुं एक वेदनीय अने उचैर्गोत्र, उत्कृष्टपदें ए तेर प्रकृति अने जघन्यपदें तीर्थंकरनाम विना बार प्रकृति के ते जव्यसिद्धिक एवा जीवने योगी गुणगणाना चरमसमयंमिखीयंति के चरम समयने विषे कये जाय बे, अहीं मनुष्यानुपूर्वी ते मनुष्यगति बे, माटें तेर प्रकृति साथेंज क्षय जाय. एम मतांतरें कडं. अनेरा श्राचार्य वली एम कहे जे के मनुष्यानुपूर्वीनी छिचरम समयेंज सत्ता व्युछेद थाय बे, उदयना अनावथकी उदयवती प्रकृतिने स्तिबुकसंक्रम न होय ते माटें स्वस्वरूपें करीने चरम समयने विषे तेनां दलिक देखाय जे एम युक्त डे, तेमनो चरम समयमा सत्ता व्युछेद होय , आनुपूर्वी चार तो क्षेत्र विपाकी डे माटें नवापांतरालगतियेंज एनो उदय होय, ते कारण माटें जवस्थ जीवने श्रानुपूर्वीवो उदय न होय अने उदयविना तो अयोगी अवस्थाने विचरम समयेंज मनुष्यानुपूर्वीनी सत्ता व्युवेद थाय, एवा मतने अनुस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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