Book Title: Prakarana Ratnakar Part 4
Author(s): Bhimsinh Manek Shravak Mumbai
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 882
________________ सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ GU स्थकदृष्टि, देश विरति, प्रमत्त, अप्रमत्त साधु, ए चार मांहेलुं जावे ते सप्तक क्षीण करे बे, तथा जो बद्धायु थको रूपकश्रेणी खारंजे तेवारें ए सप्तकनो य करे, तो ते नियमथी अनुपत परिणामवंत थको चढते परिणामें आगले चारित्रमोहनीयनी प्रकृति खपाववाने खर्थे उद्यम करे. एम जाष्यमध्यें कयुं बे. " इयरो अणुवर उच्चिय, सयलं सेटिं समाणे " हवे चारित्रमोहनीयनी शेष एकवीश प्रकृति खपाववाने का उद्यम करतो एवो पुरुष, यथाप्रवृत्त्यादिक त्रण करण करे. तिहां करणनुं स्वरूप पूर्वी पेरेंज जाए. यहीं अप्रमत्त गुणठाणे यथाप्रवृत्तिकरण, तथा पूर्वकरण गुणगणे अपूर्वकरण ने अनिवृतिबादर गुणठाणे श्रनिवृत्तिकरण करे. तिहां अपूर्व करणे स्थितिघातादिक करी अप्रत्याख्यानीचा चार अने प्रत्याख्यानीश्रा चार, एवं आव कषाय एवी रीतें खपावे, के जेवी रीतें अनिवृत्तिकरणाद्धाने प्रथम समयेंज ते कषायाष्टकनी पल्योपमना असंख्यातमा जाग प्रमाण मात्र स्थिति शेष थाय ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ८१ ॥ ॥ तेवार पढी निवृत्तिबादर गुणठाणे शुं हणे ? ते कहे . ॥ अनि बायरथी, एण गिदि तिग निरय तिरि नामा ॥ संखित इमे सेसे, तप्पाउंगार्ड खीयंति ॥ ८२ ॥ Jain Education International לי अर्थ-निट्टिबारे के० निवृत्तिबादर गुंणठाणाना प्रथम समयें श्रावकपाय पस्योपमना असंख्यात जाग प्रमाण स्थितिना थाय. पढी थीए गिद्धिति के श्री द्धित्रिक, नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, एकेंद्रियजाति, बेंद्रियजाति, तेंद्रियजाति, चौरिंडियजाति, स्थावर, श्रातप, उद्योत, सूक्ष्म, साधारण, ए निरयतिरिचनामार्जतपार्टगार्ड के० नरक अने तिर्यच ए बे गति, तत्प्रायोग्य नामकर्मनी तेर प्रकृति तथा पूर्वोक्त थी द्धित्रिक ते दर्शनावरणीयनी प्रकृति, एवं शोल प्रकृतिने उलनासंक्रमें करीने प्रतिसमय वेली जवेली जेवारें पल्योपमना असंख्यातमा जाग प्रमाणमात्र स्थिति शेष रहे, तेवारें ते शोल प्रकृतिने प्रतिसमय बंधाती प्रकृतिमध्यें गुणसंक्रमें करी संक्रमावी संक्रमावीने क्षीण करतो करतो अ निवृत्तिबादर गुणठाणाना संखितइमेसेसे ho संख्याता जाग गये थके अने शेष एक जाग थाकते थके ते सघली प्रकृति श्रीयंति के क्षीण करे. श्रहींथां श्रप्रत्याख्यानीया तथा प्रत्याख्यानीया आठ कषाय पूर्वै खपाववा मांड्या हता पण हजी क्षीण थया नथी तेना वचमां पहेल वहेलीज ए शोल प्रकृतिनो दय कस्यो ने कोइएक प्राचार्य वली एवं कड़े बे के, ए शोल प्रकृति खपावतां वचालें व कषाय खपावीने पी ए शोल प्रकृति खपावे. ॥ इत्यर्थः ॥ ८२ ॥ १०८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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