Book Title: Prakarana Ratnakar Part 4
Author(s): Bhimsinh Manek Shravak Mumbai
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
View full book text
________________
G00
सप्ततिकानामा षष्ठ कर्मग्रंथ. ६ यसंतकम्मंसा के बनो बंध, चार तथा पांचनो उदय श्रने नवविध सत्ता होय. एटले बनो बंध, चारनो उदय अने नवनी सत्ता, ए प्रथम नांगो; तथा बनो बंध, पांचनो उदय अने नवनी सत्ता, ए बीजो नांगो; ए बे नांगा निश्चे होय. तेवार पड़ी अपूर्वकरणना शेष नाग अने अनिवृत्तिकरण तथा सूक्ष्मसंपराय, ए त्रण गुणगणे निशा अने प्रचला, ए बे पण बंधथकी टली माटें चनबंध के चतुर्विधबंध, चतुर्विध उदय श्रने नवविध सत्ता, ए तिगे के बंध, उदय अने सत्ता, त्रणेनो एक नांगो तथा चपणनवंस के चतुर्विधबंध, पंचविध उदय थने नवविध सत्ता. अहीं अंशशब्दें सत्ता जाणवी. ए बीजो नांगो. ए बे नांगा त्रण गुणगणे होय. ए बे मांगा उपशमश्रेणीनी अपेक्षायें जाणवा. हवे दपक श्रेणीनी अपेक्षायें कहे . उसु के नवमे श्रने दशमे, ए बेगुणगणे जुअल के बंध अने उदयनुं जोमयुं एटले चतुविध बंध अने चतुर्विध उदय होय. अहीं चारनी संख्या पालथी लेवी श्रने बस्संता के षड़विध सत्ता एटले चारनो बंध, चारनो उदय अने बनी सत्ता, ए एक नांगो आपकने होय. नवमा गुणगणाना बीजा नांगें थीणजीत्रिकनो क्षय थया पली नवमे अने दशमे गुणगणे एज नांगो होय. जे जणी कम्मपयमीनी चूर्णिमध्ये कडं बे के, दपकने अतिविशुद्धि नणी निमा अने प्रचलानो उदय न होय, ते माटें पंचविध उदयनो नांगो पण न होय ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ४४ ॥
जवसंते चन पण नव, खीणे चन रुदय बच्च चनसत्ता ॥
वेअणिअ आजगोए, विनऊ मोदं परं वुबं ॥ ४५ ॥ अर्थ-उवसंते के उपशांतमोह नामा अगीश्रारमे गुणगणे बंधने अन्नावें चनपण के चतुर्विध उदय, तथा पंचविध उदय अने नव के नवविध सत्ता, एटले चारनो उदय अने नवनी सत्ता तथा पांचनो उदय श्रने नवनी सत्ता, ए बे नांगा होय. उपशांतमोहने तथाविध विशुछिने बनावें निशा प्रचलानो पण उदय संजवे, ते माटें पंचविध उदय कह्यो तथा खीणे के क्षीणमोहगुणगणे चउरुदय के चतुविध उदय अने उच्च के० षइविध सत्ता, ए नांगो बेहला समय विना बाकीना सघला समयें होय, एटले हिचरम समय लगें होय, अने चरम समयें तो बे निखानी सत्ता पण टले, माटे चतुर्विध उदय अने चउसत्ता के चतुर्विध सत्ता, ए नांगो होय. एम बे नांगा दपकने होय. ते पठी जदय तथा सत्ता सर्व टले. हवे वेअणिअाउगोए के वेदनीय, आयु अने गोत्र, 'ए त्रण कर्मना जांगा गुणगणे विनऊ के कहीने मोहंपरंवुद्धं के पनी मोहनीय कर्मना नांगा कहीशुं ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ४५ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842 843 844 845 846 847 848 849 850 851 852 853 854 855 856 857 858 859 860 861 862 863 864 865 866 867 868 869 870 871 872 873 874 875 876 877 878 879 880 881 882 883 884 885 886 887 888 889 890 891 892 893 894 895 896