________________
शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५
६१ तथा एक थोवमाहे एकसो ने एकवीश कुबक नव अने एक नवना पांचसें ने ओगणचालीश अंश करीयें, एवा (३१७) अंश (१२२) मा नवना होय, तथा एक लवमध्ये आउसो एकावन कुखक नव पूर्ण होय, अने उपर वली बावनमा नवना सत्तोतेरीआ नव जाग होय. एक लवनी थावली बे लाख, सत्तर हजार, आठसें ने पंचाशी, ते उपर वली एक श्रावलीना सत्तोतेरीया एकोत्तेर नाग; तथा एक थोव मांहे आवली एकत्रीश हजार, एकसो ने बबीश उपर वली एक लवना पांचसे उंगणचालीश नाग करीयें, तेवा त्रणसें ने बे जाग आवे. ॥४१॥
॥हवे उत्तरप्रकृति श्राश्रयीने उत्कृष्टस्थितिबंधना स्वामि कहे .॥ अविरय सम्मो तिबं, आदार उगा मरान अपमत्तो ॥ मित्रा दिहीबंध, जिह हिश सेस पयमीणं ॥४॥ अर्थ-श्रविरयसम्मोतिछं के अविरति सम्यक्दृष्टि मनुष्य पूर्वे मिथ्यात्व प्रत्ययें नरकायु बांध्यु ले जेणे एवो मनुष्य दायोपशमिक सम्यक्त्व लहीने, तेणे करी तीर्थकरनामकर्म पठी ते नरकगतिमाहे जातो सम्यक्त्व वमतो ते सम्यक्त्व वमताने बेहेले समय जिननामनी उत्कृष्ट स्थिति बांधे. जे नणी ए जिननामना बंधक मांदे एहिज अति संविष्टपणुं , अति संक्शे उत्कृष्ट स्थितिबंध थाय तथा थाहारफुगामराज्अपमत्तो के० थाहारकछिक अने अमरायु एटले देवायु, ए त्रण प्रकृतिनी उत्कृष्टस्थितिबंधनो स्वामी, अप्रमत्त साधु जाणवो. जे जणी आहारकशरीर तथा श्राहारक अंगोपांग, ए बे प्रकृतिनो उत्कृष्टस्थितिबंध प्रमत्तगुणगणाने सन्मुख थयेलो एवो अप्रमत्त यति ते अप्रमत्तगुणगणाने चरमबंधे बांधे एना बंधकमांहे एहिजथति संक्लिष्ट बे, तथा देवताना श्रायुनो उत्कृष्ट स्थितिबंध स्वामी अप्रमत्तगुणस्थानक वर्ति साधु जाणवो; पण एटबुं विशेष जे प्रमत्त गुणस्थानकें आयुबंध आरंजीने अप्रमत्तें चढतो साधु बांधे. श्रायुबंध स्थानक मांहे एहिज अतिविशुधस्थानक , केमके शुन्नायुनो बंध उत्कृष्ट विशुछियें करी होय . • ए चार प्रकृतिथी सेसपयमीणं के शेष थाकती जे एकसो ने शोल प्रकृति तेनो जिहाहर के उत्कृष्ट स्थितिबंधनो स्वामि मिलादिहिबंधश् के० मिथ्याष्टि जीव जाणवो, एटले संझी पंचेंजिय सर्व पर्याप्तिये करी पर्याप्तो मिथ्यादृष्टि जीव बांधे जे जणी ए एकसो ने शोल प्रकृतिमध्ये मनुष्यायु अने तिर्यगायु, एबे आयु विना शेष एकसो ने चौद प्रकृतिनुं उत्कृष्ट स्थितिबंध उत्कृष्ट संक्वेश परिणामे थाय, तेजणी मिथ्यात्वथी अधिक कोइअन्य संक्श स्थानक नथी. यहींयांपण असंख्याता अध्यवसाय स्थानक बे, पण ते मध्ये स्वस्वबंध प्रायोग्य संक्लेशस्थानक सेवां, तथा तेमां पण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org